शिक्षा का महत्व
शिक्षा एक
व्यापक शब्द है जो अपने आप में बहुत बड़ा अर्थ समाहित किए हुए है। इसकी व्यापकता
की पहुंच जीवन के प्रत्येक कोने में हैं। शिक्षा जीवन को ऊपर उठाने का सबसे
बेहतरीन साधन है। शिक्षा का अर्थ होता है सीखने और सिखाने की प्रक्रिया। यह ‘शिक्ष्’
शब्द में अ प्रत्यय लगाने से बना है। अतः सीखने की हर प्रक्रिया को शिक्षा की
परिधि में रखा जा सकता है। शिक्षा को दूसरे शब्दों में विद्या ग्रहण करना, ज्ञान
प्राप्त करना आदि भी कहा जाता है। शिक्षा शब्द में विद्या और ज्ञान उसके अंग के
रूप में समाहित हैं। इस प्रकार किसी भी प्रकार का ज्ञान या विद्या प्राप्त करना
शिक्षा कहलाती है।
प्राचीन काल
में शिक्षा के स्थान पर ‘विद्या’ शब्द का प्रयोग किया जाता था, जिसका अर्थ धार्मिक
विधि-विधानों और नीतियों का अध्ययन था। किंतु कालांतर में विद्या शब्द का प्रयोग
सभी संगठित ज्ञान के अध्ययन से संबंधित हो गया। भाषा, गणित, दर्शन, इतिहास, भूगोल,
विज्ञान आदि का ज्ञान प्राप्त करना विद्या अध्ययन के अंतर्गत आता है। इस संगठित
ज्ञान को प्राप्त करने के लिए गुरुकुलों में विद्यार्थी विद्या का अभ्यास करते थे।
आधुनिक युग में विद्या के तौर-तरीके में बदलाव आया और उसे ‘शिक्षा’ (Education) कहा
जाने लगा। इस प्रकार शिक्षा वह तरीका या पद्धति है जिसके द्वारा विद्यार्थियों को
ज्ञात सूचनाओं, विधियों, कानून, दर्शन, विज्ञान, गणित, भाषा, इतिहास, प्रशासन,
अर्थशास्त्र और नवीन खोजों आदि से परिचित कराया जाता है।
इस प्रकार
शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी प्राप्त ज्ञान, कौशल और समझ से अपने जीवन रूपी
इमारत की आधारशीला रखने में सक्षम बन जाता है। किसी विद्यार्थी को जीवन यापन करने
के लिए तीन शक्तियों की आवश्यकता पड़ती है- संप्रेषण, कौशल और रचनात्मकता।
आइए सबसे
पहले ‘संप्रेषण’ पर विचार करें- संप्रेषण का तात्पर्य होता है कि व्यक्ति की वह
क्षमता जिसके माध्यम से वह दूसरों से संपर्क करता है, दूसरों को अपनी बात समझा
लेता है, जो बात, विचार, ज्ञान वह अपने अनुभव से प्राप्त करता है उसे दूसरों के
लिए ठोस रूप में लिपिबद्ध कर देता है तथा अपने सोच-विचार को सैद्धांतिक आकार देने
में सक्षम होता है। ’संप्रेषण’ क्षमता के विकास के लिए विद्यार्थियों को कम से कम
दो भाषाओं में लिखने, पढ़ने और बोलने की क्षमता विकसित करनी पड़ती है। इसके
अतिरिक्त वह दो से अधिक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर अपनी संप्रेषण क्षमता को
समृद्ध कर सकता है। इस भाषाई ज्ञान द्वारा व्यक्ति दुनिया के प्रत्येक कोने में जा
कर उसका प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकता है, दुनिया के किसी भी प्रशासनिक,
कानूनी, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों से संबंध विकसित कर अपनी
और देश की आर्थिक एवं अन्य प्रकार की उन्नति कर सकता है। इसके माध्यम से
विद्यार्थी को आधुनिक समाज में सुरुचि पूर्ण जीवन यापन करने का अवसर प्राप्त होता है।
‘संप्रेषण’ क्षमता के विकास से वह अंधविश्वास, अत्याचार और अन्याय से लड़ने में
सक्षम बन जाता है। अतः सभी अभिभावकों, शैक्षिक संस्थानों, सरकार और सामाजिक समूहों
की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने नौनिहालों को ‘संप्रेषण’ क्षमता से युक्त करें,
ताकि वे अपने जीवन के मार्ग आसानी से तय कर सकें और उस पर सफलता पूर्वक आगे बढ़
सकें। ‘संप्रेषण’ क्षमता से रहित व्यक्ति अंधकार में जीने के लिए मजबूर रहता है
अथवा उसे दूसरों द्वारा बताई गई बातों पर विश्वास करने की मजबूरी होती है। इस
प्रकार की मजबूरियां उसको शोषण के चक्र में फंसाती हैं। अज्ञान से युक्त व्यक्ति
कितनी भी कोशिश करे, किंतु वह उस ताकत का अनुभव नहीं कर पाता है जो एक ‘संप्रेषण’
क्षमता से युक्त व्यक्ति के पास होती है। अतः सभी अभिभावकों और विद्यार्थियों की
जिम्मेदारी बनती है कि वह भाषाओं के ज्ञान से परिचित हो। जिससे अपना और अपने
परिवार का जीवन बेहतर और खुशहाल बना सकें।
आइए
‘संप्रेषण’ के बाद दूसरी शक्ति ‘कौशल’ पर विचार करें- इसका तात्पर्य होता है कि किसी
कार्य में कुशलता प्राप्त करना, किसी विषय अथवा कार्य में दक्ष होना। उदाहरण
स्वरूप बाइक मेकैनिक को यह ज्ञान नहीं होता कि बाइक किस सिद्धांत पर कार्य करती
है, किंतु वह उसे खराब होने पर पुर्जे-पुर्जे खोलकर बना देता है और कंपाउंडर को इस
बात का ज्ञान नहीं होता कि किस रोग के लिए कौन सी दवा दी जानी चाहिए और वह कैसे
कार्य करती है। परंतु वह इंजेक्शन लगाने और सामान्य रोगों की पहचान कर दवा देने
जानता है। किसान को यह पता नहीं होता कि पौधे में खाद-पानी देने से वह क्यों बढ़ता
है किंतु पौधे को देखकर वह उसकी आवश्यकता समझ जाता है और परंपरा से अपनी सफल फसलें
उगाता रहता है। उक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि ‘कौशल’ वह ज्ञान है जिसे
अभ्यास से सीखा जा सकता है। क्योंकि यह ज्ञान अपनी पूरी प्रक्रिया में निबद्ध हो
चुका होता है। अतः ‘कौशल’ वह कार्य या विधि की प्रक्रिया का ज्ञान है जिसके
दोहराने से वह कार्य या क्रिया संपन्न होकर अपेक्षित परिणाम देती है- जैसे किसान
बिना ज्ञान के भी फसल तैयार करता है और उसे बारंबार तैयार करता है। इसमें वह सभी
ज्ञान की विधि या प्रक्रिया आती है जो बारंबार दोहराई जा सकती है। इस प्रकार
“कौशल” कार्य-प्रक्रिया के निश्चित विधि या तरीकों से दूसरों को सीखा कर, सीखी हुई
कार्य-प्रक्रिया को दोहराना है तथा इसमें अपेक्षित परिणाम निकलता है। जैसे-
कंप्यूटर आपरेटर, ड्राइविंग, सिलाई, बुनाई, मिस्त्रीयाना, खाना-पकाना, पठन सिखाना,
मोबाइल बनाना, इलेक्ट्रिक मोटर बनाना आदि। अतः शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में इस
प्रकार के ‘कौशल’ पैदा किए जाते हैं। इन कौशलों के ज्ञान से विद्यार्थी अपने
जीवनोपार्जन के लिए कोई न कोई कौशल का प्रयोग कर सुख पूर्ण जीवन जीता है। हमारे
देश की तमाम पिछड़ी जातियां जैसे कुंभार, लोहार, धरिकार आदि अपने पारंपरिक कौशलों
से जीवन सफलता पूर्वक यापन करते रहे हैं। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि
कालांतर में ये धंधे कमजोर पड़ गए, क्योंकि उक्त जातियों ने अपने ज्ञान को
समायानुसार अद्यतन नहीं किया। उदाहरण स्वरूप मोची! मोची ही रह गया किंतु
मोची-कार्य से बड़ी-बड़ी जूते की फैक्टरियां चलती हैं। दूध बेचने वाला अहीर दूध ही
बेचता रह गया किंतु उसका अद्यतन रूप डेरी ने अमूल जैसे उत्पाद को घर-घर पहुंचा
दिया है। इस प्रकार ‘कौशल’ व्यापक अर्थ देने वाला शब्द है जो व्यक्ति में
कार्य-कुशलता की क्षमता पैदा करता है। अतः इस “कौशल’ का विकास शिक्षा के द्वारा
विद्यार्थियों में पैदा किया जाता है। इसलिए कौशल के विकास के लिए भी शिक्षा एक
आवश्यक आवश्यकता है।
आइए तीसरे
सबसे महत्वपूर्ण शक्ति ‘रचनात्मकता’ पर विचार करें- ‘रचनात्मकता’ कोई अलग ज्ञान की
शाखा नहीं है, बल्कि ‘रचनात्मकता’ विद्यार्थियों द्वारा प्राप्त ज्ञान की विविध
शाखाओं के बोध और उसमें स्वयं के अनुभव और अनुभूतियों के मेल से निर्मित की गई,
किसी विषय, वस्तु या जरूरत के लिए नई आकृति, सिद्धांत या उत्पाद होती है। जिसे
दूसरे शब्दों में ‘सृजन’ भी कहते हैं। जिस व्यक्ति में विषय का ज्ञान और बोध व
अनुभूति की गहरी समझ और तीव्रता होती है, वही व्यक्ति ‘सृजन’ करता है। यही
नव-निर्माण करने की क्षमता ‘रचनात्मकता कहलाती है। इसी से ज्ञान की नई शाखाओं का
विकास सतत होता रहता है। ‘रचनात्मकता’ से जो ‘सृजन’ होता है, उसी का आगे अन्य
लोगों को सिखाना पुनः ‘कौशल’ का अंग बन जाता है। इस सारी प्रक्रिया को संपन्न करने
का माध्यम भाषा और उसकी ‘संप्रेषणता’ होती है।
अतः उक्त
तीनों शक्तियों ‘संप्रेषण’, ‘कौशल’ और ‘रचनात्मकता’ में आंतरिक अंतः संबंध होता है
और ये तीनों आरोही क्रम में एक दूसरे का विकास करती जाती हैं। शिक्षा
विद्यार्थियों में उक्त क्षमता के विकास का साधन है। शिक्षण संस्थान विद्यार्थियों
में उक्त क्षमता को विकसित करने के साधन हैं। जब कोई विद्यार्थी उक्त शक्तियों का
विकास कर लेता है, तो उसे संसार की समस्याओं और आवश्यकताओं को देखने की स्वयं की
प्रज्ञा प्राप्त हो जाती है। जिसका उपयोग कर वह समस्याओं और आवश्यकताओं के समाधान
हेतु कल्पना करने लगता है और अपनी कल्पना को साकार करने के लिए नई रचना करता है जो
‘सृजन’ कहलाती है। यही नई रचना समस्या और आवश्यकता के समाधान का साधन बन जाती है।
अतः शिक्षित
व्यक्ति समस्याओं और आवश्यकताओं का समाधान खोज कर स्वयं का विकास करता है और अपने
राष्ट्र को भी आगे बढ़ाता है। ऐसे व्यक्तियों में डर, भय और संशय के स्थान पर
उत्साह, सृजन और आनंद के भाव भरे होते हैं। जिस समाज और राष्ट्र में शिक्षा की
समुचित व्यवस्था होती है, जहां के नागरिक सुशिक्षित होते हैं वहां मानव का जीवन
संस्कारित, सभ्य और सुखी होता है। ऐसे शिक्षित समाज में अभाव, निराशा, भ्रष्टाचार तथा शोषण का कोई स्थान नहीं बचता है। क्योंकि
सुशिक्षित समाज इस तरह की बुराइयों के विरुद्ध संगठित संघर्ष कर, उसे नष्ट कर देते
हैं तथा उसका स्थानापन्न प्रस्तुत कर समस्या का समाधान पैदा करते हैं। जिससे समाज
विकास के मार्ग पर चलता रहता है और नागरिकों का जीवन चिंतारहित और सुखकर होता है।
शिक्षित समाज की सोच में वैज्ञानिकता और तार्कितता होती है जिससे उस समाज में
अंधविश्वासों और हानिकारक परंपराओं की कोई जगह नहीं रहती है। ऐसा सुशिक्षित समाज
नारी स्वतंत्रता, मानव की समानता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर स्वतः विश्वास करने
लगता है। ऐसे समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता का बहुत आदर होता है। ऐसे सुशिक्षित
राष्ट्र के नागरिक अपनी सदिच्छा, कल्पना और कलात्मकता का विकास करते रहते हैं।
इसलिए देश के
सभी नागरिकों का कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करें तथा
शिक्षार्थियों का भी कर्तव्य बनता है कि वे जो भी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उसमें
पारंगत हों। शिक्षा मात्र नौकरी प्राप्त करने का साधन नहीं है, बल्कि शिक्षा से
व्यक्ति नौकरी पैदा करने की शक्ति प्राप्त करता है। शिक्षा ज्ञान प्राप्त करने का
माध्यम है और ज्ञान का सकारात्मक उपयोग कर धन-दौलत अर्जित करने में बहुत परेशानी
नहीं होती है। उच्च कोटि के व्यक्तित्व का विकास शिक्षा से होता है। शिक्षा
व्यक्ति में मानवता, पारदर्शिता और योग्यता को प्रोत्साहित करने वाली सोच पैदा
करती है। शिक्षा विहीन व्यक्ति पशु के समान है जो दूसरे के भरोसे जीवन जीने के लिए
मजबूर होता है। सही और उपयोगी शिक्षा प्रदान करना सभी सरकारों, सामाजिक संगठनों और
संभ्रांत नागरिकों का कर्तव्य है। शिक्षा हमारे लिए हवा, पानी, खाना, कपड़ा, घर के
समान अत्यंत आवश्यक आवश्यकता है। अतः उन सभी लोगों को सही शिक्षा प्राप्त करनी
चाहिए जो अपना, अपने परिवार, अपने समाज और अपने देश की आर्थिक दशा सुधारना चाहते
हैं तथा उनका नाम बढ़ाना चाहते हैं। शिक्षा एक शक्ति है जो व्यक्ति को संघर्ष करने
और सुखमय जीवन की दिशा और दशा तय करती है। शिक्षा एक दीपक के समान है जो अनंत काल
तक प्रकाश फैलाता रहता है। इसलिए शिक्षित बनें, संगठित बनें और समाज की बेहतरी के
लिए कार्य करें।
शिक्षा
है विद्या का साधन, जिससे बढ़ता घर और आँगन।
आओ
पढ़ें और पढ़ाएं, घर-परिवार और समाज जगाएं।
अंधविश्वास
व दरिद्रता भगाएं, मानव जाति को सभ्य बनाएं।
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