देवनागरी लिपि में भारत की भाषाओं को लिखने की अद्भुत क्षमता

आजकल देश के दक्षिण भागों में हिंदी भाषा के विरोध में माहौल तैयार किया जा रहा है। जिसका कारण कुछ छोटी-छोटी बातों को आधार बना कर किया जा रहा है। साइनेज बोर्ड को देवनागरी भाषा में न लिखा जाए। आप को जानकारी होगी कि दक्षिण भारतीय भाषाओं विशेष कर कन्नड, तेलुगु और मलयालम तथा तमिल भाषा की सभी ध्वनियों को अभिव्यक्ति करने की क्षमता देवनागरी लिपि में है। इन भाषाओं के प्रत्येक शब्द को आसानी से देवनागरी लिपि में लिखा जा सकता है। अतः लोगों को चाहिए कि वे अपनी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखें, इससे देश में आपसी भाई चारा बना रहेगा तथा किसी की भाषा को कोई खतरा भी नहीं होगा। इस प्रकार पूरा देश यूरोप की तरह एक लिपि में बंध भी जाएगा और सामान्य व्यावसायिक कार्यों को करने में विशेष कर सामान्य जन को कोई ज्यादा समस्या भी नहीं होगी।

मेरा, देश के विद्वानों से अनुरोध है कि देश को मजबूत और संवेदनशील बनाएं। अनेकता में एकता का कार्य करें, न की भिन्नता फैलाकर देश को कमजोर करें। राजनीतिक लोग जनता को आपस में लड़ाकर अंग्रेजों का खेल खेल रहे हैं। यह देशहित में कदापि नहीं है। भाषा और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत बहुत कुछ एकात्म है। इसे अलग-अलग दिखाने की कोशिश ठीक नहीं है। उदाहरण स्वरूप भारत देश के प्रत्येक कोने में छूआ-छूत की बीमारी है, जाति-पात की बीमारी है। देश के जिस भाग तक उक्त बुराइयां हैं, कम से कम वह पूरा भारत सांस्कृतिक रूप से एक है। इन बुराइयों को भाषा के आधारों पर बांट नहीं सकते। चाहे जिस किसी कारण से देश का संपूर्ण भाग जो जाति-पात और ऊंच-नीच के भेद-भाव को मानता है, वह पूरा भारत एक हैं। इन बुराइयों को दूर करने के लिए सभी पीड़ित जनता को एक करने के लिए, एक सामान्य भाषा की आवश्यकता है, जिसकी कमी हिंदी अपने देवनागरी रूप में पूरी कर रही है। 

भाषा का मूल उद्देश्य संप्रेषण है, जो भाषा अधिक से अधिक जनता को संप्रेषण करने में सफल हो उसे जनभाषा कहते हैं। हिंदी भाषा आज जनभाषा बन गई है। हिंदी का विरोध करने वाले गरीब जनता के विरोधी हैं। वे तो अपनी बात अंग्रेजी माध्यम से कर लेते हैं लेकिन जो आम गरीब जनता, पिछड़ी जनता है, जिसे अंग्रेजी नहीं आती है, जो अंग्रेजी भाषा के माध्यम से कम से कम संप्रेषण नहीं कर पाती है, उसके लिए कौन सी भाषा है? क्या भारतीय समाज का लालची वर्ग आम नागरिकों को संगठित होने देना नहीं चाहता। 

हिंदी के इस सार्वदेशीय रूप का दर्शन आप जहां चाहें वहां कर सकते हैं। आप को कर्नाटक राज्य के जिले कारवार का उदाहरण देता हूं। यह एक पहाड़ी और पिछड़ा राज्य है, इसकी सीमा उत्तर की और गोवा राज्य से सटी हुई हैं। यहां पर हिंदी भाषियों की संख्या न बराबर है। कई बार कारवार के सब्जी बाजार में मुझे जाने का अवसर मिला। हमारी कोशिश थी कि देखें कितने लोग हिंदी समझते हैं? वहां पर हमने जिस किसी सब्जी बेचने वाले / वाली से हिंदी में बात की सभी ने मुझे समझा और सब्जी भी दिया। बहुत सारे लोग उनसे हिंदी में बात करते हैं जो बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात, केरल, आंध्र प्रदेश, और उड़ीसा आदि के नागरिक हैं। यहां तक की यहां के लोग मराठी और कोंकणी भाषा भी समझ लेते हैं। जिसकी मुख्य वजह पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र और गोवा होना है। इससे स्पष्ट होता है कि आम नागरिक जो अपनी रोजी-रोटी में लगा है, उसे हिंदी की आवश्यकता है, बिना उसके व्यापार में उन्नति नहीं हो सकती है।

अब चलते हैं उन लोगों के पास जो बाबू किस्म के लोग हैं या दर्जे के है, ऐसे लोगों को हिंदी अच्छी तरह से आती है किंतु कभी-कभी सामने वाले से अपने को बड़ा दिखाने के लिए वे भाषा आदि का सवाल खड़ा करते हैं या कोशिश यह दिखाने की करते हैं जैसे उनको हिंदी समझ में नहीं आती है। वास्तव में वे हीन भावना से ग्रसित होते हैं, सामने वाले आदमी को छोटा दिखाने की कोशिश करते हैं। ऐसे कई लोगों से अनुभव प्राप्त किए हैं। ऐसे लोगों से आप अंग्रेजी में बात करिए, प्रायः उनका हाथ अंग्रेजी भाषा में तंग होता है। किंतु आम आदमी के सामने वे अंग्रेजी बोलकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने की कोशिश करते हैं। इस तरह के लक्षण हमने उत्तर भारत में भी देखे हैं, जहां बाबू स्तर को लोग अंग्रेजी बोल कर आम नागरिकों से स्वयं को श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते हैं। वास्तव में इस कोशिश में निम्न, गरीब और गंवार के प्रति बाबू टाइप लोगों के शोषण  करने की मनोवृत्ति निहित होती है।

आप इस प्रकार के लोगों का आनुभविक आनंद कभी भी ले सकते हैं, बस आप को करना यह है कि पहले अपने को गंवार दिखाई फिर ऐसे लोगों की बड़ी-बड़ी बाते सुनिए जो सुना-सुनाई अर्ध सत्य होगा। फिर आप उनकी टूटी फूटी अंग्रेजी की जगह पर कुशल अंग्रेजी बात कीजिए। फिर देखिए बंद हो जाते हैं और हां में हां मिलाने लगते हैं। यदि आप ऐसी बनावटी लोगों के भाषा का ज्ञान तौलना है तो सीधे अंग्रेजी में बात कीजिए देखिए धीरे-धीरे हिंदी बोलने लगते हैं कि नहीं। आप उक्त बातों का कहीं पर भी प्रयोग कर देख सकते हैं।

कुल मिलाकर में यह कहना चाहता हूं देशी भाषाएं और हिंदी भाषा में गहरा संबंध है, उसे बहने दीजिए। कोई भाषा को दूसरी भाषा से लड़ा कर केवल अंग्रेजी भाषा की प्रभुता स्थापित कर देश के गरीब और गांव के लोगों का विकास रोक रहे हैं। लोगों को उनके लिए सहज भाषा को बलने दीजिए और कोशिश कीजिए सभी नागरिकों को आने-जाने तथा आदान-प्रदान में किसी तरह की संप्रेषणीय समस्या न उत्पन्न हो। ताकि आप नागरिक भी उन्नति कर सके।

जैसा कि स्पष्ट है यूरोप के देश रोमन लिपि अपनाए हुए भी अपनी भाषाओं का प्रयोग करते हैं, ठीक उसी प्रकार मुसलिम देश अरबी लिपि का प्रयोग करते हुए अलग-अलग भाषाएं को अपनाए हुए है। फिर भारत के हिंदू लोग देवनागरी लिपि अपना कर और उसमें लिखते हुए अपनी भाषाओं को सुरक्षित रख सकते हैं। कन्नड़, तमिळ, तेलुगु, मलयाली आदि भाषाओं को स्वलिपि के अतिरिक्त देवनागरी लिपि में लिख कर उसके परिप्रेक्ष्य को बढ़ाया जा सकता है। जहां तक देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा का प्रश्न है तो यह वैज्ञानिक है तथा सभी प्रकार के शब्दों को लिखने और अपनाने तथा उसे पचाने में सक्षम है। यहीं कारण है कि उर्दू और हिंदी शब्दों को देवनागरी के साथ लिखने पर वे हिंदी भाषा के अंग हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार अन्य संस्कृत श्रोत्य भाषाएं भी हिंदी को अपना लेती हैं और हिंदी उनको अपना लेती है। बस जरूरत है एक सार्थक प्रयास की।


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