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शिक्षा का महत्व

शिक्षा एक व्यापक शब्द है जो अपने आप में बहुत बड़ा अर्थ समाहित किए हुए है। इसकी व्यापकता की पहुंच जीवन के प्रत्येक कोने में हैं। शिक्षा जीवन को ऊपर उठाने का सबसे बेहतरीन साधन है। शिक्षा का अर्थ होता है सीखने और सिखाने की प्रक्रिया। यह ‘शिक्ष्’ शब्द में अ प्रत्यय लगाने से बना है। अतः सीखने की हर प्रक्रिया को शिक्षा की परिधि में रखा जा सकता है। शिक्षा को दूसरे शब्दों में विद्या ग्रहण करना, ज्ञान प्राप्त करना आदि भी कहा जाता है। शिक्षा शब्द में विद्या और ज्ञान उसके अंग के रूप में समाहित हैं। इस प्रकार किसी भी प्रकार का ज्ञान या विद्या प्राप्त करना शिक्षा कहलाती है। प्राचीन काल में शिक्षा के स्थान पर ‘विद्या’ शब्द का प्रयोग किया जाता था, जिसका अर्थ धार्मिक विधि-विधानों और नीतियों का अध्ययन था। किंतु कालांतर में विद्या शब्द का प्रयोग सभी संगठित ज्ञान के अध्ययन से संबंधित हो गया। भाषा, गणित, दर्शन, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि का ज्ञान प्राप्त करना विद्या अध्ययन के अंतर्गत आता है। इस संगठित ज्ञान को प्राप्त करने के लिए गुरुकुलों में विद्यार्थी विद्या का अभ्यास करते थे। आधुनिक युग में विद्

विश्वविख्यात पहलवान नरसिंह यादव के साथ धोखा क्यों?

क्या थी उसकी गलती ? क्यों उसे डोपिंग में फंसाया? क्यों एक उभरते होनहार का, निर्दयता से गला दबाया। क्या उसने अपनी काबीलियत साबित कर दी तुमसे बेहतर क्यों उसके दुश्मनों ? देश के पुत्र को फंसाया। राष्ट्रकुल के अखाड़े में  स्वर्ण से भारत मां का मान बढ़या दक्षेस और एशियाई खेलों में भारत का नाम चमकाया। क्या बिगड़ा था, वह गरीब सामान्य परिवार से आया, क्यों तुम ईर्ष्या से भर गए? क्योंकि तुमसे ज्यादा वह भारत का नाम बढ़ाया। हर गली और गांव में बैठे हैं देश के जयचंद कितने होनहारो को नित्य नष्ट करते है क्योंकि उनसे डरते हैं? कहीं चूर न कर दे झूठी और दलाली की सेखी ए धरती पुत्र नरसिंह पहलवान।                                                 ------संतोष गोवन की ओर से नरसिंह को समर्पित

अपने देश में विरोधी संघर्ष

अपने ही देश में सफलता के लिए करने पड़ते हैं विरोधी संघर्ष उन लोगों से  जो अपने देश के लिए  भलाई के काम करने के पदों पर बैठे हैं, पैदा होने के बाद, जब बच्चा बालवाड़ी जाना शुरू करता है सभी से शुरू हो जाता है संघर्ष पढ़ना, लिखना, सीखना आभाव में शिक्षक और किताब-कापियों के, विकट परिस्थितियों से अंजान खुश और मस्त  जीवन की ललक लिए वह पढ़ता हुआ क्रमशः आगे की कक्षाओं में बढ़ता जाता है। शुरू होता है असली संघर्ष तब जब वह पहुंचता है  अठवीं, नौवीं और दशवीं की कक्षाओं में, विद्यालय में अध्यापक नहीं, ठीक से कक्षाएं नहीं, आवश्यक उपकरणों का अभाव जो कुछ शिक्षण सामग्री होती है वह रहती हैं बंद एक ताले की निगरानी में कमरे के अंतर जैसे बालक अभावों में छटपटाता है, अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए विद्यालय में, मिलती है जहां उसे विरोधी परिस्थितियां जो वह संस्कार में अपने घरों से पाया रहता है उसके विपरीत की दुनिया। 

मुझे कुछ महत्त्वपूर्ण लेख निकालने पड़े।

कहते हैं शोध का तात्पर्य नई खोज और नए तरीकों को अपनाना है किंतु नियमों को पूर्ण करने के लिए शोध के सिद्धांत से समझौता करना पड़ता है। आगे नहीं बोल सकता क्यों कि समझाना मुश्किल है.............................................................................................................. बड़े बड़े लोगों को।

मित्र पर कविता

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      मित्र जिन्हें हम मित्र समझे हैं,                               बहुत खामोश रहते हैं, मालूम नहीं वे! खुश या नाराज़ होते हैं, हम तो अपनों को शुभ प्रभात कहते हैं।

भक्ति आंदोलन और प्रमुख कवि

भक्ति आंदोलन और प्रमुख कवि भक्ति आंदोलन का आरंभ 14वीं सदी के मध्य से 16वीं सदी के मध्य तक माना जाता है। प्रायः विद्वान आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काल विभाजन की सीमा रेखा से सहमत है जिसे उन्होंने सन ‘1318 ई से 1643’ 1 ई. तक माना है। इस समय सीमा को इतिहास में पूर्व मध्यकाल के रूप में जाना जाता है। हिंदी साहित्य में इस काल को भक्तिकाल अथवा भक्तियुग के नाम से जानते हैं। इस भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स् वर्ण युग भी कहा जाता है क्योंकि इस काल में हिंदी साहित्य के काव्य की श्रेष्ठ रचनाएं की गईं और श्रेष्ठ कवियों का अवतरण हुआ। आंदोलन हो या काव्य प्रवृतियां सबके उद्भव के कुछ प्रेरणा-श्रोत होते हैं। माना जाता है कि भक्ति आंदोलन का उद्भव दक्षिण में आलवारों तथा नायनार संतो द्वारा छठीं से नौवीं शती के बीच हुआ। आलवार संत विष्णु के भक्त थे तथा नायनार संत शिव की आराधना कर ते थे। ये संत अधिकांशतः गैर ब्राह्मण जाति यों में पैदा हुए थे और पौराणिक शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को ज् याद ा महत्त्व देते थे। चूंकि गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद देश

कहते हैं डर के आगे जीत है

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माता वैष्णव देवी के दर्शन करने के मार्ग पर लगभग पांच सौ मीटर से अधिक ऊंचाई पर बने इस घर के आस पास कैसे बकरी निडर हो कर घूम रही थी। जहां से नीचे देखने पर सामान्य आदमियों के पैर फिसल रहे थे। क्या उन लोगों से ज्यादा बहादूर नहीं है जो इसे मारते हैं या निरीह आदमियों की हत्या करते हैं। क्या भगवान , गॉड और अल्ला ने इस बकरी और उस आदमी दोनों को नहीं बनाया है। किंतु जब बकरी आदमी को नहीं मारती तो फिर आदमी क्यों बकरी को मारता है? सोचें अगर आप की कोई बकरी हत्या करती और कहती सर्वोच्च शक्ति की इच्छानुसार हो रहा है तो आप को कैसा लगता। अतः इस सुंदर ग्रह की सुंदरता की रक्षा करें और बर्बरता से सभ्यता की ओर बढ़े। यही इस बहदूर बकरी का संदेश है।