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राज दादा भाई साहब जरा सोचें

भारत मानुष विचार करें महाराष्ट्र में जो अलगाववादी बीज बो दिया गया है वह अब पल्लवित हो रहा है। धीरे धीरे यह बीज बंगलौर, कोलकाता एवं अन्य महानगरों में भी फैल सकता है। यह निश्चित रूप से भाषा और क्षेत्रीयता को आधार बनाकर किए गए राज्यों के निर्माण का दुष्फल है। दुनिया के हर देश ने कम से कम भाषाई आधार पर एकता हासिल किया है या उस दिशा में तेजी के साथ बढ़ रहें हैं। चीन हमारे सामने एक उदाहरण है जिसने हाजोरों देशी भाषाओं को जीवंत बनाए हुए अपनी एक राष्ट्रीय भाषा और राष्ट्रीय जीवन शैली विकसित कर लिया है, अत: चीन जैसे विविधता युक्त देश में सामुदाइक वैमनस्य, संघर्ष तथा अलगाव की समस्या अल्पतम है। जहाँ तक वैश्विक सम्पर्क और विकास का प्रश्न है तो वह भारत जैसे देशों से कहीं भी पीछे नहीं है। क्या कारण है कि आज उत्तर भारतीय या हिन्दी के नाम पर इस देश में राजनीति की जा रही है जबकि मराठी या उत्तर भारतीयों में कोई विशेष अंतर नहीं है। मराठी, गुजराती और हिन्दी में भाषाई और सामाजिक स्तर पर कोई विभेदक अंतर नही है। इससे यह पता चलता है कि हम तिलक और शिवा जी को भूल गए हैं और राजनीतिक स्वार्थों के आगे पूरे देश को बि