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दिसंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सहज को कठिन बनाने का प्रयास

            कुछ लोग हिंदी में विदेशी शब्दों के शुद्धता के नाम पर अपरचित अरबी-फारसी या अंग्रेजी के शब्दों का जानबूझ कर प्रयोग करते हैं और सर्वग्राही होने का नाटक करते हैं। हिंदी में नुक्ता चिह्न लगाने की कोई आवश्कता नहीं है। क्योंकि जनता उसे, उसके मूल शाब्दिक शुद्धता से नहीं बोलती है। वही बात अंग्रेजी शब्दों पर भी लागू होती है। अंग्रेजी के शुद्ध उच्चारण के नाम पर हिंदी को अशुद्ध और कठिन करने में इन कथित हिंदी भाषा के दुश्मनों को शर्म नहीं आती है। अरे भाई हिंदी किसी शब्द को उसी प्रकार ग्रहण करेगी जैसा वह जनता में बोला जाता है। आप को परेशानी है तो जरा या ज़रा, कप या कप़, जलील या ज़लील शब्दों के दो अर्थ बता दीजिए। डॉक्टर केवल अंग्रेजी बोलने वाला बोलता है। आम जनता उसे डाक्टर ही बोलती है। उसी प्रकार लोक में जरा, कप और जलील ही प्रचलित है।      अतः इसके देशी उच्चारण को ही हिंदी शब्द के रूप में ग्रहण करने की जरूरत है। ताकि कोई विदेशी हिंदी सिखे तो इन शब्दों का अर्थ शब्दकोश में प्राप्त कर सके। क्या अंग्रेजी भाषा ने 'दाल' को 'डाल' नहीं बना दिया है। हे मेरे हिंदी के शुभ चिन्

बालिका ही स्त्री है!

प्राय: देखा जाता है कि लोग लड़ को की शिक्षा पर बहुत ध्यान देते हैं। पालक अपनी औकात से अधिक लड़कों की शिक्षा पर खर्च करते हैं। लड़कों पर पढ़ाई-लिखाई के अलावा हमारे समाज में कोई ख़ास बंधन नहीं होता। लड़कों को हर प्रकार की आजादी मिली होती है। वे  जहाँ चाहें जा सकते हैं। जब चाहें आ सकते हैं। यहाँ तक की यदि कुछ भरा बुरा हो गया तो लड़कों को समाज उतना दोषी नहीं मानता, एक प्रकार से उन्हें हमारे समाज और परिवार से पूरी आजादी प्राप्त है। यहाँ तक स्वयं स्त्रियाँ भी लड़कों को तो आजादी देती हैं। किंतु स्वयं की पुत्री को वह आजादी देने में सं कोच करती हैं या मना करती हैं। आखिर ऐसी गलत धारणाएं हमारे समाज में क्यों व्याप्त हैं? क्या कभी हम सब इन समस्यों को समस्या माना? शायद नहीं। इसे तो हम सब ने नैतिकता से जोड़ दिया और इस नैतिकता की सारी रखवाली करने की जिम्मेदीरी स्त्री पर डाल कर स्वयं आजाद हो गए।       यहाँ एक अनुभव की बात बताना चाहता हूँ कि सभी पालक चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ने-लिखने, खेलने-कुदने में श्रेष्ठ योग्यता प्राप्त करें। लेकिन अनुभव यह बताता है कि जिस बच्चे की माँ अधिक