भक्ति आंदोलन और प्रमुख कवि

भक्ति आंदोलन और प्रमुख कवि

भक्ति आंदोलन का आरंभ 14वीं सदी के मध्य से 16वीं सदी के मध्य तक माना जाता है। प्रायः विद्वान आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काल विभाजन की सीमा रेखा से सहमत है जिसे उन्होंने सन ‘1318 ई से 1643’1 ई. तक माना है। इस समय सीमा को इतिहास में पूर्व मध्यकाल के रूप में जाना जाता है। हिंदी साहित्य में इस काल को भक्तिकाल अथवा भक्तियुग के नाम से जानते हैं। इस भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग भी कहा जाता है क्योंकि इस काल में हिंदी साहित्य के काव्य की श्रेष्ठ रचनाएं की गईं और श्रेष्ठ कवियों का अवतरण हुआ। आंदोलन हो या काव्य प्रवृतियां सबके उद्भव के कुछ प्रेरणा-श्रोत होते हैं। माना जाता है कि भक्ति आंदोलन का उद्भव दक्षिण में आलवारों तथा नायनार संतो द्वारा छठीं से नौवीं शती के बीच हुआ। आलवार संत विष्णु के भक्त थे तथा नायनार संत शिव की आराधना करते थे। ये संत अधिकांशतः गैर ब्राह्मण जातियों में पैदा हुए थे और पौराणिक शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को ज्याद महत्त्व देते थे। चूंकि गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद देश में छोटे-छोटे राजाओं की बाढ़ आ गई थी। उनमें से अधिकाश पैत्रिक राजपरिवार की वंश परंपरा से जुड़े नहीं थे। इन्हें अपने अधिकार बढ़ाने तथा शासन व्यवस्था बनाए रखने के लिए धर्म का सहारा लेना पड़ा। परिणाम यह हुआ ब्राह्मणों को बड़ी मात्रा में याज्ञिक कार्यों के लिए दान और उपहार मिलने लगा। इस प्रकार वे शासन सत्ता में भागीदार होते गए तथा वर्ण व्यवस्था को जन्म आधाित और जाति आधारित व्यवस्था बना कर उसे पुराणों और स्मृतियों द्वारा धार्मिक मान्यता प्रदान कर एक तरफ स्वयं को राजा के साथ संरक्षित किया तथा दूसरी ओर अपनी श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए भेद-भाव और छूआ-छूत को मनमाना बढ़ावा दिया।  जिसे शैव और वैष्णव संतों ने स्वीकार नहीं कर सके। इस कारण ईश्वर की भक्ति पर बल दिया गया जहां ईश्वर के समक्ष सभी लोग एक समान थे। यही वे परिस्थियां हैं, जिनके कारण कर्मकाण्डीय याज्ञिक बहुदेव के विरुद्ध एकेश्वरीय भक्ति का बीजारोपण हुआ। जो शैव और वैष्णव से होते हुए परम-आत्मा अर्थात परमात्मा की भक्ति और ब्रह्म से अध्यात्मिक रूप से जुड़ता है।  इस दौरान समुद्रतटीय राज्य केरल में क्रिस्चियन और इस्लाम दोनों धर्म पहुंच चुके था। जातिवाद से पीड़ित जनता उन धर्मों के प्रति आकर्षित हो रही थी। इस धार्मिक प्रभाव को कम करने के लिए आदि शंकराचार्य (788-820 ई.) ने पुनः ब्राह्मण या सनातन धर्म को पुनर्जीवित करने का सफल प्रयास किया। जिसमें उन्होंने ब्रह्म और आत्मा के सिद्धांत को दिया। शंकराचार्य के अद्वैतमत और मायावाद के विरोध में कई वैष्णव संप्रदाय खड़े हुए। इन संप्रदायों ने उत्तर भारत में विष्णु के अवतारों का प्रचारप्रसार किया। इनमें से एक के प्रवर्तक रामानुजाचार्य थे, जिनकी शिष्यपरंपरा में आनेवाले रामानंद ने (पंद्रहवीं सदी) उत्तर भारत में रामभक्ति का प्रचार किया। रामानंद के राम ब्रह्म के स्थानापन्न थे जो राक्षसों का विनाश और अपनी लीला का विस्तार करने के लिए संसार में अवतीर्ण होते हैं। भक्ति के क्षेत्र में रामानंद ने ऊँचनीच का भेदभाव मिटाने पर विशेष बल दिया। विष्णुस्वामी के शुद्धाद्वैत मत का आधार लेकर इसी समय बल्लभाचार्य ने अपना पुष्टिमार्ग चलाया। बारहवीं से सोलहवीं सदी तक पूरे देश में कृष्णचरित के आधार पर कई संप्रदाय प्रतिष्ठित हुए, जिनमें सबसे ज्याद प्रभावशाली वल्लभ का पुष्टिमार्ग था। उन्होंने शांकर मत के विरुद्ध ब्रह्म के सगुण रूप को ही वास्तविक कहा। उनके मत से यह संसार मिथ्या या माया का प्रसार नहीं है बल्कि ब्रह्म का ही प्रसार है, अत: सत्य है। उन्होंने कृष्ण को ब्रह्म का अवतार माना और उसकी प्राप्ति के लिए भक्त का पूर्ण आत्मसमर्पण आवश्यक बतलाया। भगवान के अनुग्रह या पुष्टि के द्वारा ही भक्ति सुलभ हो सकती है। इस संप्रदाय में उपासना के लिए गोपीजनवल्लभ, लीला पुरुषोत्तम कृष्ण का मधुर रूप स्वीकृत हुआ। इस प्रकार उत्तर भारत में विष्णु के राम और कृष्ण अवतारों प्रतिष्ठा हुई।                                बारहवीं शताब्दी के बाद भारत में इस्लाम के पाँव जमाने के पश्चात सूफी मत ने हिंदू और मुसलमानों के लिए सामान्य मंच उपलब्ध किया। इस्लाम में रहस्यवाद के उदय से सूफी मत का उदय माना जाता है। यह ठीक है कि सूफी मत में मूल धारणा - इस्लाम की ही रही, लेकिन वह उससे कुछ भिन्न भी हो गया। एक किंवदंती प्रसिद्ध है। हजरत मुहम्मद जब बहिश्त में प्रवेश के लिए दरवाजे पर खड़े थे और उनके पीछे उनके शिष्यों की कतार थी, तभी उन्होंने देखा कि कुछ लोग उनकी कतार से हटकर खड़े थे। पैगंबर ने अपने एक शिष्य से पूछा - 'वे कौन लोग हैं। तो शिष्य ने बताया - 'वे सूफी हैं।' फिर पैगंबर ने पूछा - 'वे वहाँ क्या कर रहे हैं?' तो उन्हें बताया गया कि वे भी बहिश्त में जाने के लिए खड़े हैं।' इस पर पैगंबर ने कहा- 'मेरे बिना।' यानी वे खुदा के पास परमात्मा के पास सीधे जाने की साधना करते थे। आत्मा-परमात्मा का संबंध सीधे था, बीच में किसी की भी जरूरत नहीं थी। यही सूफीवाद का सैद्धांतिक पक्ष है।यद्यपि भक्ति का स्रोत दक्षिण से आया तथापि उत्तर भारत की नई परिस्थितियों में उसने एक नया रूप भी ग्रहण किया। मुसलमानों के इस देश में बस जाने पर एक ऐसे भक्तिमार्ग की आवश्यकता थी जो हिंदू और मुसलमान दोनों को ग्राह्य हो। इसके अतिरिक्त निम्न वर्ग के लिए भी अधिक मान्य मत वही हो सकता था जो उन्हीं के वर्ग के पुरुष द्वारा प्रवर्तित हो। महाराष्ट्र के संत नामदेव ने १४वीं शताब्दी में इसी प्रकार के भक्तिमत का सामान्य जनता में प्रचार किया जिसमें भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूप गृहीत थे। भक्तिकाल की मुख्य प्रवृत्तियां-1.     भक्ति आंदोलन का नारा था -       जात-पांत पूछे नहिं कोई       हरि को भजै सो हरि का होई।।जाहिर है कि हिंदू समाज की जाति प्रथा के खिलाफ विद्रोह का स्वर था भक्ति-आंदोलन। इस नारे और विद्रोह ने मुख्यतः ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती दी।2. निर्गुण –सगुण-  इस प्रकार इन विभिन्न मतों का आधार लेकर हिंदी में निर्गुण और सगुण के नाम से भक्तिकाव्य की दो शाखाएँ साथ साथ चलीं। निर्गुणमत के दो उपविभाग हुए - ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी। पहले के प्रतिनिधि कबीर और दूसरे के जायसी हैं। सगुणमत भी दो उपधाराओं में प्रवाहित हुआ- रामभक्ति और कृष्णभक्ति। पहले के प्रतिनिधि तुलसी हैं और दूसरे के सूरदास।3. शास्त्र के स्थान पर अनुभव ज्ञान और तर्क का महत्त्व देना।4. परमात्मा का भक्त वत्सल्य और प्रेममयी स्वरूप।5. लोक भाषा का काव्य साधना में प्रयोग।6. दास भक्ति-भाव।भक्ति काल की दो काव्य धाराएं हैं जिनके दो-दो भेद प्राप्त होते हैं-1.   निर्गुण भक्ति : क) ज्ञानाश्रयी शाखा और ख) प्रेमाश्रयी शाखा2.   सगुण भक्ति :  क) रामाश्रयी शाखा  और ख) कृष्णाश्रयी शाखा ज्ञानाश्रयी शाखाःइस शाखा के भक्त-कवि निर्गुणवादी थे और नाम की उपासना करते थे। गुरु को वे बहुत सम्मान देते थे और जाति-पाँति के भेदों को अस्वीकार करते थे। वैयक्तिक साधना पर वे बल देते थे। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का वे विरोध करते थे। लगभग सब संत अपढ़ थे परंतु अनुभव की दृष्टि से समृध्द थे। प्रायः सब सत्संगी थे और उनकी भाषा में कई बोलियों का मिश्रण पाया जाता है इसलिए इस भाषा को 'सधुक्कड़ी' कहा गया है। साधारण जनता पर इन संतों की वाणी का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा है। इन संतों में प्रमुख कबीरदास थे। अन्य मुख्य संत-कवियों के नाम हैं - नानकरैदासदादूदयालसुंदरदास तथा मलूकदासकबीर के ब्रह्मः  1. 'जाके मुख माथा नहीं, नाही रूप-कुरूप
                 पुहुप वासतें पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥'
                 पुहुप वासतें पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥'                 पुहुप वासतें पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥'                 पुहुप वासतें पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥'कबीर ने कहा-   1.जो बामन बामनि जाया और राह काहे न आया,                जो तुरकहिं तुर्कनि जाया पेटहिं खतना क्यों न कराया?
प्रेमाश्रयी शाखाःमुसलमान सूफी कवियों की इस समय की काव्य-धारा को प्रेममार्गी माना गया है क्योंकि प्रेम से ईश्वर प्राप्त होते हैं ऐसी उनकी मान्यता थी। ईश्वर की तरह प्रेम भी सर्वव्यापी तत्व है और ईश्वर का जीव के साथ प्रेम का ही संबंध हो सकता है, यह उनकी रचनाओं का मूल तत्व है। उन्होंने प्रेमगाथाएं लिखी हैं। ये प्रेमगाथाएं फारसी की मसनवियों की शैली पर रची गई हैं। इन गाथाओं की भाषा अवधी है और इनमें दोहा-चौपाई छंदों का प्रयोग हुआ है। मुसलमान होते हुए भी उन्होंने हिंदू-जीवन से संबंधित कथाएं लिखी हैं। खंडन-मंडन में न पड़कर इन फकीर कवियों ने भौतिक प्रेम के माध्यम से ईश्वरीय प्रेम का वर्णन किया है। ईश्वर को माशूक माना गया है और प्रायः प्रत्येक गाथा में कोई राजकुमार किसी राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए नानाविध कष्टों का सामना करता है, विविध कसौटियों से पार होता है और तब जाकर माशूक को प्राप्त कर सकता है। इन कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी प्रमुख हैं। आपका 'पद्मावत' महाकाव्य इस शैली की सर्वश्रेष्ठ रचना है। अन्य कवियों में प्रमुख हैं-  मंझनकुतुबन और उसमानरामाश्रयी शाखाःकृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत लीला-पुरुषोत्तम का गान रहा तो रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि तुलसीदास ने मर्यादा-पुरुषोत्तम का ध्यान करना चाहा। इसलिए आपने रामचंद्र को आराध्य माना और 'रामचरित मानस' द्वारा राम-कथा को घर-घर में पहुंचा दिया। तुलसीदास हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। समन्वयवादी तुलसीदास में लोकनायक के सब गुण मौजूद थे। आपकी पावन और मधुर वाणी ने जनता के तमाम स्तरों को राममय कर दिया। उस समय प्रचलित तमाम भाषाओं और छंदों में आपने रामकथा लिख दी। जन-समाज के उत्थान में आपने सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस शाखा में अन्य कोई कवि तुलसीदास के सम। न उल्लेखनीय नहीं है तथापि अग्रदास, नाभादास तथा प्राण चन्द चौहान भी इस श्रेणी में आते हैं।रामराज्य का विस्तृत वर्णन हमें रामचरितमानसके उत्तरकांडमें मिलता है। तुलसीदास कहते हैं -रामराज्य बैठे त्रैलोका, हरषित भये गए सब सोका।बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई॥बरनाश्रम निज-निज धरम, निरत बेद पथ लोग।चलहिं सदा पावहिं सुखहि, नहि भय सोक न रोग॥दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज नहीं काहुहिं व्यापा।सब नर करहि परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति-नीति।चारिऊ चरन धर्म जग माही। पूरि रहा सपनेहुँ दुःख नाही॥ कृष्णाश्रयी शाखाःइस गुण की इस शाखा का सर्वाधिक प्रचार हुआ है। विभिन्न संप्रदायों के अंतर्गत उच्च कोटि के कवि हुए हैं। इनमें वल्लभाचार्य के पुष्टि-संप्रदाय अंतर्गत के अष्टछाप के सूरदास, कुम्भनदास,रसखान जैसे महान कवि हुए हैं। वात्सल्य एवं श्रृंगार के सर्वोत्तम भक्त-कवि सूरदास के पदों का परवर्ती हिंदी साहित्य पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। इस शाखा के कवियों ने प्रायः मुक्तक काव्य ही लिखा है। भगवान श्रीकृष्ण का बाल एवं किशोर रूप ही इन कवियों को आकर्षित कर पाया है इसलिए इनके काव्यों में श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य की अपेक्षा माधुर्य का ही प्राधान्य रहा है। प्रायः सब कवि गायक थे इसलिए कविता और संगीत का अद्भुत सुंदर समन्वय इन कवियों की रचनाओं में मिलता है।  गीति-काव्य की जो परंपरा  जयदेव और विद्यापति द्वारा पल्लवित हुई थी उसका चरम-विकास इन कवियों द्वारा हुआ है। नर-नारी की साधारण प्रेम-लीलाओं को राधा-कृष्ण की अलौकिक प्रेमलीला द्वारा व्यंजित करके उन्होंने जन-मानस को रसाप्लावित कर दिया। आनंद की एक लहर देश भर में दौड ग़ई। इस शाखा के प्रमुख कवि थे सूरदास, नंददासमीरा बाई, हितहरिवंश, हरिदास, रसखाननरोत्तमदास वगैरह। रहीम भी इसी समय हुए।वात्सल्य प्रेमःसिखवति चलन जसोदा मैया।अरबरा कैं पानि गहावति डगमगा धरनी धरै पैया॥कबहुंक सुन्दर बदन बिलोकति उर आनंद भरि लेति बलैया।कबहुंक कुल-देवता मनावति चिर जीवहु मेरी कुंवर कन्हैया॥कबहुंक बलकों टेरि बुलावति इहिं आंगर खेलौ दो भैया।सूरदास स्वामी की लीला अति प्रताप बिलसत नंदरैया॥५॥कैशौर्य प्रेम:बूझत स्याम कौन तू गोरी।कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥ अंत में कहा जा सकता है कि भक्ति-काल मानव की समानता, ईश्वर की एकता, भाषाई समन्वय और प्रेममयी भक्ति का संगम है। जिसमें एक ऐसी
सामासिक संस्कृति निर्मिति हुई है जो भारतीय जीवन चरित्र का अभिन्न अंग के रूप में आज भी माना और जाना जाता है।
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