अहीर शब्द की उत्पत्ति और उसका अर्थ
अहीर या आहिर शब्द का अर्थ होता है, वीर, बहादुर, निडर, भयहीन। यह शब्द संस्कृत के आभीर शब्द से बना है। यह शब्द आभीर जनजातियों के लिए प्रयोग किया जाता है। ये जाति बहुत बहादूर और निडर स्वभाव की होती है। इनमें गोत्र और खाप परंपरा के अनुसार पंचायतें चलती है। इन्हें अपनी रक्त शुद्धि पर बहुत गर्व रहता है। भगवान श्री कृष्ण इसी जाति में पैदा हुए थे। वास्तव में समाज में यह मुहावरा प्रचलित है कि अहीर होना अर्थात निडर होना, साहसी होना। भारतीय समाज में स्त्रियों का सपना होता है कि उन्हें अहीर गुण वाला पति मिले। क्योंकि आभीर उच्चकोटि के प्रेमी होते हैं। बचन के पक्के होते है, साहस, वीरता के साथ-साथ इनमें दया, धीरता और रक्षा के भाव भरे होते हैं, शायद इसलिए नारी जाति इन पर बहुत भरोसा करती है और मन ही मन अहीर जैसे वर की कल्पना करती रहती हैं।
आभीर जनजाति दुनिया की बहादुर और भयानक आक्रांता के रूप में प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। यह जनजाति अपने प्रारंभिक काल से घुमंतू प्रकृति की थी, क्योंकि इसके जीवन यापन का आधार पशुपालन था। गाय, भैंस , बकरी आदि का पालन करने के लिए घास के मैदान और मीठे पानी की आवश्यकता होती है। इसकी तलाश में यह जनजाति सिंध, पंजाब, काबुल और पश्चिमी उत्तर भारत में फैलती चली गई। आज भी जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश आदि पहाड़ी भागों में गुज्जरों के रूप में इनके जनजातीय स्वरूप रचना को समझ सकते हैं। यही आभीर जाति कालांतर में मैदानी भागों और नदियों के किनारे स्थायी रूप से रहने लगी। यहीं इसे गुज्जर, जाट और अहीर के रूम में अलग अलग जगहों और समय के अनुसार अलग अलग नाम दिया गया जिसमें से प्रमुख गुज्जर, जाट और अहीर है। वास्तव में ये तीनों उपजातिया पशुपालन संस्कृति की संवाहक रही हैं। चूकि पशुपालन कार्य की प्रकृत अनुसार उसके पालकों में साहस, शक्ति और सहयोग आवश्यक था। साहस, शक्ति और सहयोग के बिना पशुपालन कार्म संभव नहीं था न है। पशुपालन कार्य में जानवरों को नियंत्रित करना, उनके साथ-साथ, ऊंचे-नीचे, गर्मी-ठंडी, धूप-छांव में सदैव चलते रहना और उनकी सुरक्षा करना पड़ता है। जिसके कारण पशुपालकों में आत्मिक साहस, शारीरिक शक्ति और सहयोगी चरित्र उनकी आवश्यकता बन गई थी। धीरे धीरे ये पशुपालक घास के मैदानों और नदियों के किनारे स्थाई होने लगे तो उन्हे स्थानीय वस्तियों और व्यवस्थाओं से संघर्ष करना पड़ा। ये पशुपालक संस्कृति के लोग अपने आत्मिक साहस, शारीरिक शक्ति और सहयोग की प्रवृत्ति के कारण दुश्मनों पर भयंकर आक्रमण करते थे, उन्हे लूट लते थे और तहस नहस कर देते थे। दुश्मन प्रतिरक्षा करने में पूरी तरह असफल होता था। जिस कारण से दुश्मन उन्हे आभीर कहने लगा, जिसका मतलब होता है, जिसे हराया नहीं जा सकता जो निडर, भयंकर, साहसी होता है। इस प्रकार इस पशुपालक संस्कृति के लोगों को हर स्थान पर स्थानीय लोगों ने 'आभीर' कहा गया। यह उसी प्रकार है जैसे सभी गैर-इस्लामिक को मुसलमानों ने हिंदू कहा है। जब की कथित हिंदुओं में अनेक पंथ थे। उसी प्रकार पशुपालकों के समूह को सभी जगह 'आभीर' कहा गया।
'आभीर' शब्द की उत्पत्ति आ+भीर से हुई है, जिसमें 'आ'1 उपसर्ग है जिसका अर्थ है- ओर, सीमा, तक, समेत और 'भीर'2,3,4 शब्द का अर्थ है- साहसी, निडर, भयहीन, भय पैदा करनेवाला। इस प्रकार आभीर शब्द का अर्थ होता है- जो सदैव साहस से भरा रहता है, जो दुश्मनों को भयभीत रखता है, वीर, बहादुर, अजेय आदि।
संदर्भ:
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उक्त संस्कृत शब्दकोशों में 'भीर' शब्द का अर्थ- निडर, भयहीन और डर पैदा करने वाला आदि अर्थ है। किंतु हिंदी शब्दकोशों में भीर और भीरू को समान मानने की गलत चलन पैदा हुआ है। भीर और भीरू में वहीं अंतर और प्रवृत्ति है जो वीर और वीरू में है।
अत: यह कहना सत्य होगा कि गुज्जर, जाट, अहीर, गोप, गोपाल, पाल आदि पशुपालक संस्कृति के लोगों को भारतीय संदर्भ में 'आभीर' के रूप में जाना पहचाना गया है।
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