बालिका ही स्त्री है!
प्राय: देखा जाता है कि लोग लड़ को की शिक्षा पर बहुत ध्यान देते हैं। पालक अपनी औकात से अधिक लड़कों की शिक्षा पर खर्च करते हैं। लड़कों पर पढ़ाई-लिखाई के अलावा हमारे समाज में कोई ख़ास बंधन नहीं होता। लड़कों को हर प्रकार की आजादी मिली होती है। वे जहाँ चाहें जा सकते हैं। जब चाहें आ सकते हैं। यहाँ तक की यदि कुछ भरा बुरा हो गया तो लड़कों को समाज उतना दोषी नहीं मानता, एक प्रकार से उन्हें हमारे समाज और परिवार से पूरी आजादी प्राप्त है। यहाँ तक स्वयं स्त्रियाँ भी लड़कों को तो आजादी देती हैं। किंतु स्वयं की पुत्री को वह आजादी देने में सं कोच करती हैं या मना करती हैं। आखिर ऐसी गलत धारणाएं हमारे समाज में क्यों व्याप्त हैं? क्या कभी हम सब इन समस्यों को समस्या माना? शायद नहीं। इसे तो हम सब ने नैतिकता से जोड़ दिया और इस नैतिकता की सारी रखवाली करने की जिम्मेदीरी स्त्री पर डाल कर स्वयं आजाद हो गए। यहाँ एक अनुभव की बात बताना चाहता हूँ कि सभी पालक चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ने-लिखने, खेलने-कुदने में श्रेष्ठ योग्यता प्राप्त करें। लेकिन अनुभव यह बताता है कि जिस बच्चे की माँ अधिक