भारत की प्रगति चौगुना बढ़ सकती है?


भारत विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर है और प्रत्येक क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अपनी छवि सुधारी है। अधिकांश विद्वान इसे बहुत उत्साहजनक और उज्ज्वल भविष्य के रूप में देख रहे हैं। परंतु मुल्यांकन का तटस्थ मापदण्ड अपनाया जाय तो भारत की औसत प्रगति विश्व के अन्य देशों से की तुलना में कमतर है। यदि आप भारत को भिखमंगों और सपेरों की दृष्टि से देखने वाले में से हैं तो आप को लगेगी भारत ने बहुत प्रगति कर लिया है और प्रगति के गतिशील रथ पर सवार है। जबकि सच्चाई इसके विरुद्ध है। विश्व के किसी भी मानव विकास रिपोर्ट का अवलोकन करें तो पता चलता है भारत के साथ स्वतंत्र होने वाले देश इससे कई क्षेत्रों में बहुत आगे है। आखिर क्यों? आज भारत में सैनिक सेवा के लिए उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिल रहें हैं क्यों? निम्नस्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है तो क्यों? देश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में तीव्र वृद्धि हो रही है तो क्यों? पाश्चात्य शिक्षित (कथित आधुनिक शिक्षा/शिक्षित) उम्मीदवारों का अभाव क्यों? यदि उपर्युक्त प्रश्नों का समाधान खोजें तो हमें क्षैतिज और उर्ध्वाधर गहराई में उतर कर विश्लेषण करना होगा कि स्वतंत्रता के बाद भारत ने भाषानीति के अंतर्गत राज्यों का निर्माण किया परिणाम स्वरूप राज्यों नें क्षेत्रीयता पर बल दिया। चूंकि शिक्षा मुख्यत: राज्यों का विषय है। अत: देश के युवाओं को शिक्षित एवं दीक्षित करने का कार्य राज्य सरकारों ने संभाला हुआ है। अधिकांश राज्यों ने विद्यालयों का शिक्षण माध्यम हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएं बनाया हुआ है, परिणाम यह हुआ है कि देश की 90% शिक्षित जनसंख्या किसी न किसी देशी माध्यम (मीडिअम) से पढ़ी-लिखी है। देश के 10% धनाढ्य ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों से पढ़े हैं। चूंकि नियुक्ति बोर्डों की परीक्षा के प्रश्न-पत्रों में अंग्रेजी हमेशा महत्त्व पूर्ण बनी रही है, अत: देश के 10% शिक्षित ऐसी सेवा के लिए उपयुक्त समझे जाते रहे हैं, जबकि बराबर क्षमता एवं कुशलता रखने वाले छात्रों को कम्न्युकेश्न या अंग्रेजी के कारण अपने हक़ से वंछित रहना पड़ा है। आज निजी सेक्टर में अपार संभावनाएं हैं। परंतु हजारों करोडों लोग ऐसी डिग्री प्राप्त कर के भी कुछ अच्छा कार्य प्राप्त कर पाने में असफल रहें हैं।
अत: यदि अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाय तो निश्चित रूप से देश में मौलिक शोध कार्य होने लगेंगे लोग कुशला के साथ अंग्रेजी सीख भी जाएंगे और अपने कौशला का पूरा का पूरा उपयोग कर पाएंगे। उदाहरण के तौर पर जहाँ-नियुक्ति बोर्डों ने देशी भाषाओं को परीक्षाओं में स्थान दिया है वहाँ अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के चयन प्रतिशतता में भारी कमी आ गई है। अत: कम्न्युकेशन और ग्लोबलाइजेशन के नाम पर सभी राज्यों के शिक्षा-बोर्डों को उद्देश्यहीन सिद्ध कर दिया गया है। देशी माध्यम के विद्यालओं से दी जाने वाली शिक्षा गरीब और ग्रामीण लोग जो यहाँ से शिक्षा प्राप्त कर निकलते है उन्हें अभिजात्य वर्ग/संस्थाओं/बोर्डों द्वारा अपमानित होने के लिए अभिषप्त रहना पड़ता है। इस प्रकार मंहगी शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है जो एक नव-ब्राह्मणवाद का आरम्भ है जिसका आधार जाति के स्थान पर धन-दौलत है। यह नीति लाखों करोडों शिक्षित लोगों को बेरोजगार तो बना ही रही है तथा साथ में दोयज़ दर्ज़े का होने का बोध कराती रहती है। अत: कम्न्युकेशन और अंग्रेजी के नाम पर करोडों भारतीयों को कमजोर न किया जाय। अंग्रेजी विकास का माध्यम बनना चाहिए न कि जन विकास में अवरोधक।
जहाँ तक कार्य कुशलता का प्रश्न है तो देशी-माध्यम के विद्यार्थियों का प्रदर्शन उच्च रहा है, हमारे नीति- निर्माताओं या बौद्धिक वर्ग की यह सोच अंग्रेजी वाला व्यक्ति बहुत योग्य होता है? वैज्ञानिक नहीं है, कृपया इस प्रकार का भेद-भाव विशेष कर अभिजात्य संस्थाओं द्वारा न किया जाय क्योंकि यह जन भावना तथा संविधान के भावना के विरुद्ध है। जहाँ तक अंग्रेजी भाषा की उपयोगिता का प्रश्न है तो वह निर्विवाद रूप से विश्व में समता, स्वतंत्रा, उदारता एक कमजोर और गरीबों के उद्धारक के रूप में एक जीवंत आवश्यकता है किंतु भारतीय सन्दर्भ में उसके प्रकृति के विरूद्ध उसे एक वर्ग द्वारा शोषण के हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। वैज्ञानिक दृष्टि रखें और सभी को कौशल के आधार पर अवसर दे तो अवश्य देश की प्रगति चार गुना बढ़ जाएगी, क्योंकि इसकी उन्नति में 15% के जगह पर 75% लोगों का विकास में योगदान होगा।

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