क्या आप को ऐसा नहीं लगता:
सभी नारा तो लगाते है. सब लोग बराबर हैं, सबका हितैषी बनने की घड़ियाली आँसू गिराई जाती है. परंतु इस देश में हर पद और संस्थान में एक ऐसे वर्ग का कब्ज़ा हैं जो विशेष कर पिछड़े, दलितों, आदिवासियों से कहीं न कहीं नफरत करता है. उसकी मानसिकता इन्हें कमजोर और बुद्धिहीन सिद्ध करने की कोशिश करती रहती है. खुद को उच्चता के गर्व से भरी रहती है. वास्तव में साधन संपन्नता के बावजूद ये लोग योग्यता में हर दम पीछे रहते हैं. केवल छल-कपट और 420 से आगे निकल जाते हैं. क्योंकि ये एक बुरी सोच के साथ संगठित होते हैं कि ये उच्च है, बाकी सभी इनके सेवक हैं. संगठित होने की वजह से सफल होते हैं और योग्य लोग असफल होते हैं। झुकने और चापलूसी करने, दूसरों की शिकायत करने में इस वर्ग को महारत हासिल है. ये गद्दारी करने में भी आगे रहते हैं. ये कौन हैं? इन्हे पहचाने, नहीं तो विकास नहीं हो पायेगा. यह वर्ग हमेंशा यह कोशिश करता है कि देश की बोली-भाषा कभी प्रशासन और न्याय की भाषा न बने. दरअसल हिंदी की ये रोटियाँ खाते हैं लेकिन उसे विकसित और प्रसारित नहीं होने देते हैं. क्योंकि यह सक्षम तबका अंग्रेजी के बदौलत मजा मार रहा है. देश की 80% जनता कहीं न कहीं दूसरे स्तर के कार्यों में लगी है. उच्च नौकरियों में अनिवार्य अंग्रेजी के स्थान पर अनिवार्य कोई देश की एक भाषा हिंदी, गुजराती, माराठी, तमिल होनी चाहिए. ताकि जो अधिकारी या न्यायधीश बने वे जनता की भाषा जाने. अंग्रेजी का ज्ञान सभी को कुछ न कुछ होता है. यदि इसे अनिवार्य आवश्यता लगे तो रखें. लेखिन देशी प्रतिनिधित्व के लिए देशी भाषा भी पास करने की अनिवार्यता होनी चाहिए. ताकि जो कुशल लोग इसमें सफल हो वे देश की भवना आम आदमी की जरूरत और परेशीनी समझ सकें. प्रायः लोगों को कहते हुए पाया जाता हैं कि उन्हें हिंदी नहीं आती तो उन्हे उनकी देश की भाषा बोलना चाहिए. परंतु सभी अंग्रेजी में छक्का मारते हैं. उनका बाउंसर लोगों के ऊपर से निकल जाता है. परिणाम यह होता है या तो लोग डर से काम करने लगते हैं या भाग जाते हैं. यह दशा किसी भी प्रकार से जन हितैषी नहीं हो सकती. एक और प्रश्न मुझे परेशान करता है. कुछ लोग खुद को हिंदू होने का ठेकेदार से लगते हैं. खुद जातिवादी भेद-भाव करते रहते हैं, और दूसरों को जातिवादी कहते फिरते हैं. इसे मीडियाँ में भी देख सकते हैं. कुछ लोग धर्म निरपेक्ष होने का ढ़ोग रचते हैं, जब अन्य धर्मवाले धर्मनिरपेक्षता नहीं दिखाते तो उन पर उनकी आवाज नहीं निकलती है. इस लिए लगता है कि इस देश की बुराई कर के पुरस्कार जीते जा सकते हैं, भेद-भाव बना कर शक्ति प्राप्त की जा सकती है. अंग्रेजी से जनता को नियंत्रित किया जा सकता है. इस देश का बाजार खोल कर माला-माल हुआ जा सकता है. गरीबी का दुखड़ा रोकर कुछ बजट हासिल किया जा सकता है. परंतु देश को मजबूत करने और आम लोगों को समृद्ध करने का कार्य कर न तो स्वयं सफल हुआ जा सकता है और न ही कमजोर लोग आप का साथ देने वाले हैं. तो फिर क्या इस देश के खून में ही कुछ ऐसा है जिसका आधार असल नहीं है. क्या कभी इस देश के हर आदमी को बिजली, शिक्षा और प्रगति का भेद-भाव रहित अवसर मिल पायेगा या ????? 

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