छोटी छोटी बातें
कल अचानक
आदित्य गांवकर के जोड़ों में कुछ हलचल हो गई। बेचारा बेतहासा भाग रहा था कि उसका हाउस प्रथम या द्वितीय रैंक में आ जाय। किंतु कमर के जोड़ों में दूसरे राउंड के
दौरान चटकन आई और
बाएं पैर की हड्डी सरक गई। बेचारा मैदान में
ही चिल्ला कर गिर पड़ा। थोड़ी देर तक किसी को समझ
में नहीं आया कि क्या हुआ? उस दौड़ की समाप्ति पर उसके साथी लड़के दौड़ कर उसके पास गए तो पता चला उसको बहुत ज्याद पीड़ा हो रही है।
यह घटना
दिनांक 28
फरवरी 2015 दिन शनिवार की शाम
6.45 की है, जब जवाहर नवोदय
विद्यालय
काणकोण दक्षिण गोवा
में अंतर हाउस एथलेटिक प्रतियोगिता संपन्न हो
रही थी। पीटी सर और
अन्य अध्यापक सूचना उसके हाउस मास्टर के पास भेज दिया। सूचना प्राचार्य और
अन्य संबंधित लोगों तक भी पहुंची पर
क्या हुआ? कौन उसे हास्पिटल ले जाय? नर्स मैडम की जिम्मेदीरी होती है बच्चों के
मेडिकल समस्याओं की देख-रेख करना, परंतु वह भी संडे की छुट्टी पर थीं। समस्या गंभीर थी, आप सोच रहे होंगे कि
वहां सभी लोग संवेदनहीन हैं पर बात ऐसी नहीं है।
दिनभर कार्य
करने के पश्चात वही दो-तीन घंटे मिलता
है जिसमें लोग अपना घरेलू काम करते हैं। उसमें भी प्रायः अतरे-दिन इस तरह की कोई न कोई समस्या आती रहती है।
कर्मचारियों की कमी
और सुविधायों का अभाव आदमी को निर्दयी
बना देता है। मैं बस
बाजार से सब्जी ला कर जैसे ही टीबी खोला कि अच्छे दिन लाने वाली सरकार के बजट को सुने की हम कर्मचारियों के लिए क्या राहत के दिन हैं। अपने पसंदीदा
चैनल ज़ी न्यूज को खोला उसमें
बता रहा था कि डेबिट और
क्रेडिट कार्डों के प्रयोग
पर भी टैक्स लगेगा। पिछले दिनों दो
दिन के लिए मुंबई गया था। जरूरत
पड़ी और चार-पांच बार अपने बैंक
के अलावा दूसरे
बैंक के एटीएम से पैसे थोड़ा-थोड़ा निकाला क्यों की
महानगरों में
पैसे के चोरी होने की संभावना अधिक
होती है। परंतु उस समय लिमिट से ज्यादा
बार पैसे निकालने के कारण
मेरे 40 रुपय के लगभग
सर्विस टैक्स में कट गए। इधर बजट में डेबिट, क्रेडिट और स्कूली शिक्षा के महंगे होने का विश्लेषण आ रहा था। साथ में
माननीय वित्तमंत्री जी का यह कथन- “मीडिल क्लास खुद जी लेगा।”
मन बहुत
झल्ला गया था। यह
कैसी सरकार है?
ऐसे में जनता की क्या दशा होगी। इतने में दरवाजे पर नॉक हुई और देखा कि मेरे हाउस के कक्षा ग्यारहवीं के चार लड़के
बता रहे हैं कि “सर आदित्या
को बहुत पेन हो
रहा है, वह खड़ा नहीं हो पा रहा है।” मैंने पूछा
क्यों? क्या हुआ? उनमें से एक ने कहा-
“दौड़ के दौरान अचानक
गिर गया और दर्द
से चिल्लाने लागा।” मुझे भी
गुस्सा आया कि चलो फिर दो घंटे के लिए फंसान। लगा न जाउं क्या
हमें जीने का हक़ नहीं है। क्यों ऐसी व्यवस्था नहीं बनाई जाती जिसमें लोग सहजता के साथ और खुशी के साथ अपना अधिकतम काम कर सकें। किंतु अचानक हमें लगा कि इसमें बच्चे का क्या दोष है, कम से कम हमें अपना काम करना चाहिए। स्कूल की गाड़ी बुलाया और काणकोण सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर तुरंत पहुंच गए। लड़का खड़ा नहीं हो
पा रहा था। मैं उसको ढाढस बधा रहा था कि कुछ
नहीं है चलो एक इंजेक्शन लगेगा ठीक हो जाओगे। काणकोण कमुनिटी हेल्थ सेंटर पर कई मरीज थे। थोड़ी देर में डॉक्टर साहब आए और बताया
इंजेक्शन देने पर आराम
नहीं होता है तो हॉस्पीसिओ मड़गांव
में एक्सरे के लिए भेजना
पड़ेगा। फिर मैंने आदित्य के पैरेंट को बुलाने की कोशिश किया क्योंकि उसका घर हॉस्पिटल से मात्र 15-20 किमी की दूरी पर स्थित गांव डोगरी के आस-पास
था। किंतु पैरेंट इतने अशिक्षित और गरीब
थे या वे बात की गंभीरता
नहीं समझे किंतु
आए नहीं। बाद में
उसकी बहन जो वहीं पास में
रहती है आई। उसे हिंदी तो समझ आ रही थी किंतु अंग्रेजी बिल्कुल नहीं। लड़के को बहन
को सौप कर डॉक्टर के एक्सरे कराने की बात बता कर हम वापस आने वाले थे। किंतु जब
पूछा कैसे जाएगी
हॉस्पीसियो मड़गांव तो उसके सामने सुबह तक हॉस्पिटल के वैन के लिए प्रतीक्षा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। अतः डॉक्टर
साहब ने उसे भर्ती कर बेड दे दिया। फिर जब मैं जानना चाहा की वे खाना क्या खाएंगे तो फिर वह चुप हो गई। डॉक्टर साहब ने बताया
देर हो गई है अन्यथा खाना मिलता है। मैंने पूछा खाना भेजवा दें, उसने नहीं, नहीं
कहा। फिर हमें लगा ये लोग कहीं भूखे न रहें। इसलिए स्कूल से खाना ले कर दिया, किंतु खाना ले जाने
के लिए स्कूल में सहाय्यक को कहा तो वह ले जाने से बचने की कोशिश करने लगा। फिर स्वयं जा कर हॉस्पिटल खाना दे
कर आया।
फिर हम बजट
के बारे में सोचने लगे।
कैसे होगी
गुणवत्तायुक्त पढ़ाई, क्या गरीबों की समस्या अलग
है? क्या ऊंचे बैठे लोग
जो लोगों के भाला करने
का दावा करते
हैं, उन्हें लोगों की समस्याएं पता
हैं? कैसे पटेगी शिक्षा, शहर,
अमीर और गरीब के बीच की बढ़ती हुई खाईं।
कैसे लाएं नैतिकता
और कर्तव्य
की भावना। चिंता
बड़ों की नहीं
है, चिंता है बड़ों के व्यावहार से सीखते बच्चों की, स्कूलों में पढ़ते
विद्यार्थियों की। परेशान
होते अच्छे और सच्चे लोगों को
देखकर युवा
गुमराह हो कर निराश
और हताश हो रहे
हैं।
लेखक: संतोष कुमार
यादव 1/3/2015