मातृभाषा शिक्षण का माध्यम क्यों नहीं?

              
मातृभाषा का तात्पर्य उस भाषा से है जिसे पैदा होने के बाद बालक बोलता है। वह भाषा उसके परिवेश में प्रचलित भाषा होती है। वैज्ञानिकोतथा शिक्षाविदों का विचार है कि प्राथमिक शिक्षा बच्चों को उनकी मातृभाषा में दी जानी चाहिए। इससे बच्चों में पारिवारिक एवं सामाजिक संस्कार के साथ-साथ संकल्पनात्मक भाव एवं सोच पैदा होती है। जिसकी वज़ह से वे बच्चे उस भूमि और संस्कृति से आजीवन जुड़ जाते हैं।
राष्ट्रभाष या राजभाषा वह भाषा होती है जो व्यापक पैमाने पर मातृभाषाओंतथा देश संस्कृति संस्कार को आगे बढ़ाती है। माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा यदि राष्ट्रभाषा में दी जाती है तो विद्यार्थियों में उस भूमि, संस्कृति तथा जनता के प्रति आजीवन प्रेम बना रहता है। राष्ट्रभाषा में शिक्षित विद्यार्थी दुनियाँ का ज्ञान, तकनीक और आर्थिक साधन-सामग्री अर्जित कर अपने देश एवं जाति के लिए निचोड़ता है। ऐसे में वह देश और वहाँ के नागरिक धन-सपमन्न एवं स्वाभिमान से युक्त होते हैं।
अतः शिक्षाविदों एवं वैज्ञानिकों का वितार है कि माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा राष्ट्रभाषा में देना सदैव जनहित और देशहित में होता है।
किंतु दुर्भाग्यवश हमारे देश भारत में ऐसा नहीं हो पा रहा है। इसका कारण मुझे लगता कि हमारे देश की गुलामी की सोच में निहित है। यूरोप ने जिन देशों को गुलाम बनाया वहां उसने अपनी शिक्षा पद्धति एवं जीवन शैली को मानने एवं अपनाने वाला एक वर्ग पैदा कर दिया था। उस वर्ग को पैदा करने में देशी चीजों, वस्तुओं, भाषाओं , परंपराओं एवं संस्कृति के प्रति हीनता और यूरोप की वस्तुओं एवं जीवन शैली की श्रेष्ठता शिक्षा के माध्यम से स्थापित कर दिया गया है। जिसे सभी गुलाम देश स्वतंत्रता के बाद भी ढो रहे हैं। अफ्रिका में अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पैनिश आदि की गुलामी चल रही है जबकि भारत में उसी प्रकार अंग्रेजी आज भी श्रेष्ठता की भाषा बनी हुई है।
आज हमारा देश स्वतंत्र है फिर भी जिस प्रकार यूरोप और अंग्रेजी का प्रभाव बना हुआ है तो उसके कारण हैं।
1. स्वतंत्रता के बाद शिक्षा मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा के माध्यम से पूरी तरह नहीं दी गई। अंग्रेजी माध्यम के स्कूल एवं कॉलेज श्रेष्ठ बने रहे। जबकि सभी को एक समान शिक्षानीति के अंतर्गत लाने की आवश्यकता थी जो नहीं हुआ।
2. देशी माध्यम के विद्यालओं में पढ़ाने वाले शिक्षकों ने जिम्मेदारी नहीं उठाया, परिणाम स्वरुप स्तरीय विद्यालय एवं विद्यार्थी नहीं निकल पाए। जिसके कारण मातृभाषा माध्यम को जनता असफल माध्यम समझने लगी।
3. विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा को राष्ट्रभाषा में देने का कोई स्तरीय प्रयास सरकार और समाज द्वारा नीं किया गया, परिणाम स्वरुप आम जनता में देशी तरीकों के प्रति कारात्मक भाव पैदा होता गया।
4. अंग्रेजी भाषा ने अपने को विज्ञान एवं संचार से जोड़े रखा। उसके विकास के लिए अंग्रेजी भाषी देश आज भी प्रयास कर रहे हैं। अंग्रेजी भाषा ने दुनियाँ का ज्ञान अपने अंदर समाहित किया है। इस प्रकार वह सहजता से सभी क्षेत्रों में उपलब्ध है। जिसके कारण आम जनता उसे उपयुक्त एवं रोजगार परक समझती है। अतः अंग्रेजी माध्यम के शित्रण की माँग प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
मुझे लगता है जब तक हिंदी रोजगार. विज्ञान. तकनीक, व्यापार और संचार की भाषा नहीं बनेगी तबतक अंग्रेजी की माँग बनी रहेगी।
यदि हमारा देश जापान, फ्रांस, चीन, कोिया, जर्मनी, रूस आदि देशें की श्रेणी में आना चाहता है तो उसे हिंदी भाषा को ज्ञान के सभी अनुशासनों (क्षेत्रों) में प्रथमिकता देनी होगी जैसे भारत में काम करने वाली कंपनियों को हिंदी में देश के अंदर कार्य करने की बाध्यता हो। भारत में विकने वाले उपाद में सूचनाएँ हिंदी में अवश्य हो।
कुल मिलाकर हिंदी वैकल्पिक नहीं बल्कि अनिवार्य आवश्यक भाषा बननी चाहिए। अन्यथा अमीरों के लिए अंग्रेजी और गरीबों के लिए देश भाषाएं, जैसे आज चल रहीं हैं वैसे ही चलती रहेंगी। यदि सरकार एवं समाज चाहता है कि देश की भाषाएं आगे बढ़े तो एक समान शिक्षा सरकारी तथा गैर-सरकारी सभी शैक्षिक संस्थाओं में लागू करना होगा। इसके अलवा हिंदी भाषियों को त्याग कर राष्ड्रभाषा में उच्चकोटि की सामग्री उपलब्ध करनी होगी तथा उच्च मापदण्ड स्थापित करने होंगे।

                                   ***** 


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अहीर शब्द की उत्पत्ति और उसका अर्थ

प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की काव्य रचना : युग की गंगा

हड्डी की लोहे से टक्कर : फूल नहीं रंग बोलते हैं