प्राकृतिक भारत और उसकी जातियां

ध्यान से देखिए यह हमारा प्यारा भारतवर्ष है। इसकी प्राकृतिक दशा को देखिए, यह देश दक्षिण, आधा पश्चिम और आधा पूरब से समुद्र से घिरा है। उत्तर और पूर्वोत्तर की दिशाएं हिमालय पर्वत के दुर्गम पहाड़ों से घिरा है। जिसे इतिहास में कोई भी आक्रांता कभी पार नहीं कर सका यह ऐतिहासिक तथ्य और सत्य है। इसको देखकर कहा जा सकता है कि प्रकृति ने भारतीय उपमहाद्वीप को अपनी सुराक्षा घेरे में रखा है। पश्चिमोत्तर की सीमाएं भी लांघनीय पहाड़ों से घिरी हुई हैं। विदेशी आकांता और विभिन्न जातीय समूह इन्हीं रास्तों से भारत में समय समय पर प्रवेश करते रहे हैं। 

प्राचीन काल में जब मनुष्य का जीवन बहुतायत में स्थिर नहीं था और वह समूह में रहता था , उस समय अनेक मानवीय समूहों ने समय समय पर भारत में प्रवेश किया और सुविधानुसार इस भूमि के अंग बन गए। उस समय पश्चिम और मध्य एशिया में कोई प्रमुख संगठित धर्म नहीं था। अतः भारतीय महाद्वीप में आने वाले समूह इसके अंग बनते गए और इस भूभाग पर रच बस गए। जिसके कारण उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक विभिन्न रंग,रूप और शारीरिक बनावट के भारतीय हमें देखने को मिलते हैं। इन समूहों के साथ अलग अलग भाषाएं भी आईं और वह यहां की मिट्टी की बन कर रह गई।


भारत में बसने वाला पहला समूह सिंधुघाटी सभ्यता के लोग थे, जिन्होंने नगरीय सभ्यता का विकास किया। वे देश के विभिन्न भागों में सुविधानुसार फैले हुए थे। वे लोग मूर्तिपूजक और शांत प्रकृति के लोग थे। कलाओं में सिद्धहस्थ थे। कलात्मकता और सामूहिक जीवन शैली में विश्वास करने बाले लोग थे, उनके रंग साँवले थे और बाल काले काले थे। कालांतर में सिंधुघाटी सभ्यता के विघटन के बाद यह समूह भारतीय महाद्वीप के अन्य भागों में फैल गया। धीरे धीरे इस महाद्वीम में  स्थिर जीवन, कृषि और पशुपालन आधारित अर्थव्यवस्था और राज्यों का विकास होने लगा। राजा कला प्रिय, जनसेवक और उदार प्रवृत्ति के होते थे। वे अपनी प्रजा को अपने बच्चों जैसा समझते थे। कला, विज्ञान, आयुर्वेद, स्थापत्य और धर्मशास्त्रों का विकास हुए। भारत सोने की चिड़ियां था और यहां के लोग उस शक्ति की खोज में लगे थे, जो रहस्यात्मक थी, जिसने सारे जगत का निर्माण किया है। उनका मानना था कि कोई एक शक्ति है जिसने जगत का निर्माण और संचालन कर रही है। जिसे वे 'ब्रह्म' नाम दिया। इसी परम शक्ति 'ब्रह्म' को समझने के लिए भारतीय दर्शनशास्त्र का विकास हुए। इस सबके परिणाम स्वरूप जो समाज बना उसमें यह धारणा बैठी हुई थी कि सभी मानव का जन्म परम शक्ति "ब्रह्म" द्वारा हुई है। जिस प्रकार परम शक्ति द्वारा बनाई गई, वस्तुएं सूर्य, चंद्र, नदी, हवा, पानी और वन-उपवन सभी मानवों के लिए उपलब्ध होते हैं। उसी प्रकार राजा और प्रशासकों का काम सभी जन की सेवा करना है। इसी भावना से तमाम ऋषि मुनि इस देश में पैदा हुए, जिन्होंने अपने त्याग, साधना से इस जगत के जीव-जंतुओं के प्रति परोपकार की भावना पैदा किया।
देश में किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं था, कर्म के अनुसार व्यक्ति की स्थिति समाज में बनती थी। कामों के अनुसार श्रेणियां बनी और कालांतर में उसमें जन्म लेने वाले को उस जाति से पहचान मिली। किंतु जाति का कोई बंधन नहीं था। इस लम्बे कालावधि में विविध प्रकार के जनजातीय समूह जो स्थिर जीवन यापन नहीं करते थे, जैसे चरवाहे आदि इस महाद्वीप में प्रवेश करते रहे और अपनी पहचान के साथ भारतीय समाज का अंग बन गए।

कालांतर में तृतीय-द्वितीय ईसा पूर्व के लगभग वैदिक संस्कृति का पालन करने वाले समूह, गोरे रंगों वाले छोटे से समूह ने इस महादेश में प्रवेश किया। जो स्वयं को 'सुर' के रूप में अपनी पहचान बनाई। उनकी संस्कृति वायवी देवताओं की अराधाना पर आधारित थी, जिसे प्रसन्न करने के लिए 'सुर' संस्कृति के लोग यज्ञ किया करते थे जिसमें पशुओं का बलि चढ़ाया जाता था। ये 'सूर' संस्कृति के लोग इस देश में अपनी जगह बनाने के लिए यहां के वासियों से युद्ध किए किंतु बहुत सफल नहीं हुए। धीरे धीरे  पश्चिमोत्तर सीमा पर ये 'सूर' संस्कृति के लोग अपना अधिवास बनाने में सफल हुए। वहीं पर इनकी 'सूर' संस्कृति पनपने लगी। ये अपने से अलग भारतीय को "असुर" कहते हैं। इनकी विशेषता सुरा, सुंदरी और स्वजन हित भाव था। जब इन्हे पता चला की 'असुर' को पराजित करना असंभव है तो स्वयं को भारतीय संस्कृति में मिलाने लगे और प्रसंशा, छल और सुंदरी का प्रयोग कर असुर राजाओं और शक्तिशीली लोगों को अपने साथ मिलाने लगे। जो राजा, शासक इनकी गौरवर्णी सुंदरियों को पा कर खुश हो गए वे इन्हें अपने दरबार में रखने लगे। जो इनके चापलूसी (प्रसंशा) से मोहित हो गए, इन्हें अपने राज्यों में रहने दिया और जिसने इनका विरोध किया उसे फूट डालकर कमजोर किया और छल से मरवा दिया। इनकी सफलता के पीछे इनका गौर रंग ही था, जिस पर काले असुर फिदा होते चले गए और अपने ही लोगों के प्रति उदासीन हो गए। 'सुर' संस्कृति के लोगों को अच्छी तरह से समझ आ गई थी कि यदि राजा बनने की कोशिश किया तो शक्तिशीली और वीर असुर नाराज हो जाएंगे और हमें मार डालेंगे अथवा खत्म कर देंगे। अतः इन्होंने चालाकी पूर्व राजा व शासक का सलाहकार बनने लगे और शासक के माध्यम से राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगे तथा शासक को खुश करने के लिए उसकी अनीति और गलत व्यावहारों की प्रसंशा कर उसे प्रसन्न रखने की शैली अपनाई। धीरे धीरे असूर रक्त को शासन से दूर करने लगे और अपनी सुंदरियों द्वारा जन्मे शंकर शासकों का समर्थन किया। यही कारण है कि 'सूर' संस्कृति वालों की रचनाओं में शंकर संतानों के प्रति सदय भावना अत्यधिक पाई जाती है।

इस प्रकार 'सुर' संस्कृति के अनुयायियों ने आर्थिक संसाधनों पर अधिकार करने के लिए और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अपने वायवीय देवों को असुरों के महापुरुषों, मूर्तियों, पूजा स्थलों से सामंजस्य करना शुरु किया। इस प्रक्रिया में इस बात का ध्यान रखा गया कि वेद को अपौरुषेय कह कर और संस्कृत भाषा जो असूर लोग नहीं समझ सकते थे, को आधार बना कर देवताओं और धर्म की ऐसा चक्र बैठाया गया की सारे असुर जनता इस दुष्चक्र से कभी निकल ही नहीं पाएं। इस दुष्चक्र की सफलता का एक कारण यह था कि असुरों की कोई साझी भाषा नहीं थी, क्योंकि वे अलग अलग समय और समूहों में आए हुए थे। यहीं कारण है कि उन्होंने कोई साझी भाषा नहीं बना सके। असुरों की परंपराएं मौखिक रह गईं, जिससे उसमें स्थिरता की कमी बनती चली गई और वे  असंगठित और अस्पष्ट  बन कर रह गईं। 'सुरो' ने लिखित भाषा के साथ अपनी परंपराओं का समायोजन असुर संस्कृति से करके उस पर अधिकार मजबूत करते चले गए। धीरे धीरे असुर लोग 'सुरो' द्वारा देवगण की काल्पनिक दुनिया के अनुयायी बन कर रह गए। इस सफलता के साथ-साथ 'सुरों' की रक्त शुद्धता की समस्या भी बढ़ने लगी। इस समस्या के समाधान के लिए 'सुरों' ने 'वर्ण' धर्म की स्थापना की। वर्ण अर्थात रंग के आधार पर सुर और असुर में भेद करने लगे। अपने देवता का रंग काला असुरों को आकर्षित करने के लिए बनाया और असुरों को मूर्ति पूजा से हटा दिया, असुर जनता इस छल को समझ नहीं पाई और धन के धार्मिक धंधे के हिस्सेदारी से दूर होती चली गई और कमा कर, दान देकर और देवताओं को चढ़ावा चढ़ा कर 'सूरों' को आर्थिक समृद्धि प्रदान करती रही।  इस प्रकार भारतीय महाद्वीप में 'सूरों' द्वारा  अवांछित बना दिए गए असुर लोग हमेशा के लिए गुलाम बनते चले गए और 'सुर' अथवा 'देव' संस्कृति फलती फूलती रही तथा असुरों को अपने से हीन समझती रही।

 इसी क्रम में प्रथम ईसा पूर्व के आसपास से गोरे रंग वाले अन्य  पशुपालक समूहों का भी क्रमशः आगमन होना शुरु हुआ। जिसमें, अहीर, जाट, गुर्जर आदि पशुपालक जातियों शामिल हैं। इन समूहों की अपनी संस्कृति थी जो 'सूर' संस्कृति से भिन्न थी। इन पशुपालक समूहों का रंग, सुरों जैसा ही था, जिस कारण से दोनों में रंग का भेद नहीं हो सकता था। परंतु दोनों अलग अलग संस्कृति होने के कारण  आपस में टकराती रहीं और सदैव दोनों में संघर्ष चलता रहा है। किंतु पशुपालक संस्कृति बालों ने अपनी परंपराओं को लिखित भाषाई आधार नहीं दे पाए, जिसके कारण वह भी धीरे धीरे 'सुर' संस्कृति में विलीन होने लगे। इस प्रकार 'सुर' संस्कृति के अंग बन गए। 'सूर' संस्कृति के पोषक के सामने  बहुत बड़ा रक्त शुद्धता का संकट खड़ा हो गया। अधिकांश 'सूर' संस्कृति वाली जनता और पशुपालन करने वाले समूह एक दूसरे में मिश्रित हो गए जैसे दूध और पानी। किंतु धर्म के नाम पर सामाजिक, आर्थिक और अध्यात्मिक सुख भोग रहे एक छोटे से वर्ग ने वर्णाश्रम की  व्यवस्था बनाई। वर्णों को उनके श्रम के आधार पर तीन वर्णों में बांट दिया। स्वयं को 'ब्रह्म' से ब्रम्हा  की कल्पना कर ब्राह्मण बन गए तथा औरों को क्षत्रिय और वैश्य बना दिया। गोरे लोगों को आर्य अर्थात श्रेष्ठ जन कहा गया। शेष काले लोगों को  क्षुद्र् जो शुद्र बन गया, जिसे बहुत हीन बना दिया गया। समय समय पर आए हुए समूह अपनी पहचान बनाए रखने के लिए जाति के रुप में बने रहे और अपने समूह के अंदर ही देवपुत्रों द्वारा दिखाए मार्ग पर अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन करते रहे हैं। यही पूरा भारतीय समूदाय को कथित हिंदू कहा जाता है। इस हिंदू के ऊपर मलाई खाने वाले ब्राह्मण  आज भी अन्य हिंदुओं को अपने से नीच और अलग समझते हैं। उसे मूर्ख और कमजोर बनाए रखने में अपना फायदा देखते है। 
मध्ययुग में जो पश्चिमोत्तर सीमा से लोग आए, इस बार उनके पास भाषा और संस्कृति के साथ ही एक संगठित इस्लाम धर्म भी था। जिसने ब्राह्मणवाद को चुनौती दिया है और असुरों एवं अन्य हिंदुओं में नव चेतना पैदा किया। लोकतंत्र और मत देने के अधिकारों से  ब्राह्मणवाद पर पुनः संकट गहराया है। जिसे रोकने के लिए उसने इस बार मुसलमानों को निशाना बना रहा है, और ब्राह्मणों को चुनौती देने वाली पशुपालक जातियों अहीर, जाट, गुर्जर, आदि की हत्या करा कर डर पैदा करने की संगठति कोशिश की जा रही है। इस बार ब्राह्मणों का हथियार  आधुनिक मीडिया के टीवी चैनल बने हुए है। जिनमें उनका साथ वैश्य और कथित राजपूत दे रहे हैं। इस खेल में ब्राह्मण को श्रेष्ठता का अधिकार चाहिए, राजपूत को अपनी अत्याचार करने की शान चाहिए और वैश्यों को व्यापारिक लाभ चाहिए। असंगठित असुरों के साथ असंगठित पशुपालक जातियां और मुसलमान दलित बनाने का प्रयास किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में हो रही पुलसिया हत्याओं और जाति के आधार पर न्याय और सरकारी सहायता को देखा जा सकता है और धर्म के आधार पर मुसलमानों को हलाल किया जा रहा है। अन्यथा यह सुरक्षित और संपन्न देश कितना सुंदर होता।
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