हड्डी की लोहे से टक्कर : फूल नहीं रंग बोलते हैं

 दोस्तों, केदारनाथ अग्रवाल के रचनासंसार की इस कड़ी में कई कारणों से सतत लेख प्रस्तुत नहीं हो पा रहे हैं, किंतु जैसे ही समय मिलता है, इसको निरंतरता देने की कोशिश जारी रहेगी..............

'फूल नहीं रंग बोलते हैं' नाम  उनकी रचना के बारे जानकारी प्रस्तुत की जा रही है। यह काव्य संग्रह  उल्लिखित कवि की प्रतिनिध रचनाओं में से एक है। इसमें भारतीय समाज के किसानों, मजदूरों की दशा और संघर्ष को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है।

                          फूल नहीं रंग बोलते हैं  

प्रस्तुत काव्य संग्रह का प्रकाशन अक्तूबर 1965 ई. में परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा किया गया था। इस कविता संग्रह की भूमिका ‘मेरी ये कविताएं’ में स्वयं केदारनाथ अग्रवाल लिखते हैं कि “पहले भी मेरे तीन काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। अबनमें से एक भी उपलब्ध नहीं हैं। यह संकलन उस कमी की पूर्ति करता है।”28 जिससे स्पष्ट होता है कि कवि ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ काव्य संग्रह को अपने काव्य जीवन का प्रवेशांक मानता है। इस काव्य संग्रह में उनके पूर्व प्रकाशित तीन अप्राप्य काव्य संग्रहों ‘युग की गंगा’ की 10 कविताएं- चंद्रगहना से लौटती बेर, बसंती हवा, घन-जन, दो जीवन, आज, देश की आशाएं, कानपुर, बुंदेलखंड के आदमी, पैतृक संपत्ति और कटुई का गीत संकलित हैं। ‘लोक और आलोक’ से 17 कविताएं इस काव्य संग्रह में संकलित हैं जो इस प्रकार हैं- माँझी न बजाओ वंशी, धीरे उठाओ मेरी पालकी, नाव मेरी पुरइन के पात की, टूटे न तार तने, चाँद-चाँदनी, प्रात-चित्र, खेत का दृश्य, धूप का गीत, लौह का घन गल रहा है, गाँव का महाजन, हथौड़े का गीत, मैं, नागार्जुन के बांदा आने पर, मैं घोड़ों की दौड़, धोबी गया घाट पर, तेज धार का कर्मठपानी और मैंने उसको। इस काव्य संग्रह के विषय में कवि लिखता है कि ‘कविता का संकलन इस दृष्टि से किया गया है कि इसमें मेरे कृतित्व का पूरा बोध-चित्र उपस्थित हो जाता है। पाठक इससे मेरी कविताओं का ऐतिहासिक मूल्यांकन भी कर सकते हैं।’ इस काव्य संग्रह का नाम इसी काव्य संग्रह की एक कविता “फूल नहीं” से लिया गया है जो काव्य संग्रह के प्रभाग ‘रंग बोलते हैं’ की प्रथम कविता है। कविता इस प्रकार है-

फूल नहीं 
रंग बोलते हैं 
पंखुरियों से 

समुद्र के अंतस्तल के

नील, श्वेत

और गुलाबी

शंख बोलते हैं और वल्लरियों से।29

इस काव्य संग्रह में अगस्त 1955 से अप्रैल 1964 तक की कविताएं संकलित हैं। इन कविताओं की रचना के समय कवि की उम्र 44 से 53 वर्ष की थी। ये कविताएं उनके रचना-काल के 9 वर्षों का संकलन हैं। इस संग्रह में लोक-जीवन, लोक-समाज, प्रेम, प्रकृति औरनवादी कविताएं हैं। कवि आदर्श और सुधार की भावनाओं से परिपूर्ण है। इसलिए इन कविताओं में कवि ने जीवन का यथार्थ सच्चा-चरित्र उकेरा है। प्रकृति का मसृण सौंदर्य, नारी-केलि का उल्लास और जीवन संघर्षों से निकलती चिनगारियों को बिखेरा है। कविता के विषय में केदार बाबूजी का दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट था। उन्होंने लिखा है कि “कविता में अगर नदी, पेड़, पहाड़, वन, धूप-छांव, सूरज-चाँद-सितारे और ऋतु परिवर्तन के दृश्य न हों और उनमें लौकिक वस्तुओं के रंग रुपों का बिंबन न हो तो बेचारा पाठक कैसे अपने प्रांत, प्रदेश और देश को देख सकता है और कैसे उसे प्यार कर सकता है। ............... मेरी कविताओं में मेरा अनुभूत व्यक्तित्व तो है ही, साथ ही साथ उसमें युगबोध और यथार्थ बोध भी है।”30

‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ संकलन की कविताएं जब हम पढ़ते हैं तो लगता है, केदार अपने जन-जीवन से जुड़ी कविताओं में काव्य सृजन के उच्चतम शिखर पर पहुंच गये हैं। यद्यपि उनकी बाद की कविताओं में जीवन अनुभूतियां, प्रकृति के सुवास, विविध लोक रंग और जनवाद आदि के गहरे व यथार्थ युग-बोध मिलते हैं। इस लिए इस काव्य-संग्रह की कुल 236 रचनाओं को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है, जो इस प्रकार हैं-

1.       प्रकृति-चित्रण

2.       लोक-जीवन और प्रेम

3.       जनवादी विचारधारा

प्रकृति-चित्रण के अंतर्गत कुल 76 कविताएं हैं। जिसमें प्रकृति के विविध स्वरूपों को रूपायित किया गया है। लोक-जीवन और प्रेम के अंतर्गत कुल 125 कविताएं है, जो लोक-जीवन और लोक समाज के विस्तृत फलक को चित्रित करती हैं। जनवादी विचारधार के अंतर्गत कुल 35 कविताएं हैं। जनवादी कविताओं में किसान, मजदूर और आम जनता के शोषण करने वाले कारकों को सजीव और यथार्थ रूप में चित्रित किया गया है। कुछ छोटी-छोटी कविताओं के द्वारा लोक समाज की दुखी दशा, प्रकृति का सौंदर्य और युग का बोध एक साथ व्यक्त हुआ है। प्रस्तुत है यहां युगबोध का गतिशील यथार्थ बिंब-

कैसे जीएँ कठिन है चक्कर

निर्बल हम, बलहीन है मक्कर

तिलझन ताबड़तोड़ कटाकट

हट्टी की लोहे से टक्कर।31  

‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ काव्य संग्रह को केदारनाथ अग्रवाल का प्रतिनिधि काव्य माना जाता है। इस काव्य की भूमिका से भी यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। इस काव्य को कवि के युवावस्था की सोच की अभिव्यक्ति माने तो स्पष्ट है कि कवि सदियों से चली आ रही शोषण आधाित व्यवस्था को सामने लाना चहता है। वह शोषकों के दोगले चरित्र को लोक के सामने खोलता है। प्रकृति का ग्रामीण सौंदर्य तथा प्रेम के सात्विक स्वरूप को कवि ने यहां साकार किया है। कवि केवल शोषण को ही उजागर नहीं करता है बल्कि इस व्यवस्था को नकारते हुए जनसंघर्ष के रास्ते से लोकवाद सरकारशासन व्यवस्था स्थापित करना चाहता है।

केदारनाथ अग्रवाल के इस प्रतिनिधि काव्य संकलन की भाषा सरल, सहज और देशी मिठास से युक्त है। पाठक सहजता से कविताओं के भावों से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। काव्य संग्रह की कविताओं में वर्गीय चेतना देखने को मिलती है। जहाँ रूढ़ियों और अंधविश्वासों से जकड़ा ग्रामीण समाज है, वहीं पर महाजनों और जमींदारों द्वार शोषित और दुखी दलित, मजदूर और परेशान किसान भी है। केदार इस वर्ग के उत्थान के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। कवि का मानना है कि इन परिस्थितियों का निर्माण सक्षम वर्ग द्वारा भौतिक साधनों के नियंत्रण से हुआ है। अतः इसका समाधान भी वर्ग संघर्ष से ही होगा। डॉ. राममनोहर सविता के शब्दों में “समाज का विकास वर्ग-संघर्ष के माध्यम से हुआ है, इसलिए इसकी नैतिकता भी हमेशा वर्ग नैतिकता ही रही है अर्थात वर्ग से परे नैतिकता निराधार है।”32 अतः केदार भौतिकवादी वर्ग संघर्ष से पठार और जड़ बीहड़ रूपी जनता के संसार को वन-फूलों के गंध से भर देना चाहते हैं। यह वर्गीय चेतना और संघर्ष सुखमय संसार की स्थापना के लिए अनिवार्य है। यही इस काव्य की मौलिक स्थापना है जिसे केदार ‘वह पठार जो जड़ बीहड़ था’ कविता से स्थापित करते हैं-

वह पठार जो जड़ बीहड़ था

कटते कटते ध्वस्त हो गया,

धूल हो गया,
      सिंचते सिंचते, 
दूब हो गया,

      और दूब पर
वन के मन के-
रंग-रूप के, फूल खिल उठे
वन फूलों से गंध-भरा
संसार हो गया।33

      इस काव्य संकलन में कवि के मार्क्सवादी विचार अनुशासित और सुदृढ़ चित्र के रूप में न केवल निखरे हैं बल्कि गंभीर चिंतन और गहरे मूल्य के रूप में उसे जन मानस में सहजता से स्थापित कर देते हैं। जो लोक संवेदना बन कर, लोगों को सच्चा और अच्छा लगता है। जिसका परिणाम आज जगत के समस्त क्षेत्रों में आर्थिक समानता के लिए संघर्ष के पैमाने के रूप में देखा जा सकता है।

 

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