भारतीय मीडिया : टूटता विश्वास

हमारे बचपन में मेरे गांव के सज्जन लोग कहा करते थे कि यह बात मीडिया तक किसी तरह से पहुंच जाए तो इसमें न्याय हो जाएगा और सरकार पहल कर अन्याय को दूर करेगी और पीडित पक्ष की सहायता और सुरक्षा करेगी। प्राय: मेरे आस-पास के लोगों में यह विश्वास था। किंतु तब समस्या था गांव के अधिकांश लोग पढ़े-लिखे नहीं थे। जो कुछ पढ़े-लिखे थे, उनमें भी अपनी बात लिखकर, पूरे संदर्भ के साथ कहने की क्षमता नहीं थी। लोग अन्याय को सहते थे और मीडिया तक पहुंच न रखने के कारण भगवान के भरोसे पर छोड़ कर, अन्याय को सहने के लिए मजबूर थे।

मुझे एक घटना याद आ रही है, जाड़े का समय था मेरे पाही पर आलू हर साल की तरह इस साल भी लगी थी। आलू की बहुत अच्छी फसल हुई थी। बड़ी-बड़ी आलू पड़ी थी, कुल 80 बोरा आलू खोदने के बाद हुई थी। किंतु पिता जी बहुत जल्दी में थे कि कितने जल्दी आलू बेच दी जाए। क्योंकि देखते ही देखते आलू का दाम ₹ 350 से ₹150 तक आ गया था। वे बहुत चिंतित थे की भाव गिरता जा रहा है। मंडी ले जाने के लिए ट्रैक्टर नहीं मिल रहे थे, क्योंकि सभी किसान जल्दी में थे और भाव पानी की तरह नीचे की ओर बह रहा था।

इसी दौरान गांव में एक घटना घट गई कोई 1984-85 ई. की घटना है, थाने के दारोगा चतुरानंद शुक्ला ने गांव के एक नौजवान को मध्यरात्रि को इस लिए घर से उठा ले गए कि उसने थाने के दलाल राणा सिंह ठाकुर के बनिया के चाय की दुकान पर कुर्सी छोड़कर नहीं उठा। बनिया की दुकान पर दलाल राणा सिंह आता था और बिना पैसा दिए जो चाहता था खाता था और अपने साथियों को भी खिलाता था। उस बनिए की क्या मजाल की दलाल राणा सिंह से एक पैसा मांग ले ? किंतु वह बनिया दूसरे ग्राहकों को कभी चाय उधार भी पिलाने की उदारता नहीं दिखाई होगी। बल्कि कम-तौली और मिलावट करके अपने ग्राहकों को चूना ही लगाता था और दलाल राणा सिंह को हमेशा गालियां देता और स्वयं को पीड़ित बताता रहता। 

किंतु थाने के दलाल राणा सिंह से, न डर कर जो नौजवान ने अपनी हिम्मत दिखाई थी, उसकी पहचान राणा सिंह को पता नहीं  थी। किंतु दारोगा चतुरानंद शुक्ला की खुशामद में चायवाला बनिया, उस अपने नौजवान दिलेर ग्रहक का नाम और पता बता दिया। दारोगा चतुरानंद शुक्ला दलाली पाने के नशे में उस बेकशूर नौजवान की इतनी पीटाई किया की वह आज तक ठीक से नहीं चल पाता है।

आलू बेचने की चिंता के साथ-साथ दूसरी परेशानी पिता जी को परेशान कर रही थी और उस नौजवान को न्याय दिलाने की कोशिश में वे अपने मित्र और सहपाठी साथी वकील देवेंद्र लाला से मिले और उन्हे घटना की सच्चाई बताई। वकील देवेंद्र लाला को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने कोर्ट से तुरंत  उसी दिन, दिन में दो बजे तक उस दिलेर नौजवान को छुड़ा कर घर लाए। इसके अतिरिक्त वकील देवेंद्र लाला ने अपने साले पत्रकार लोकनाथ श्रीवास्तव को भी इस घटना की सूचना दी। 

हम लोग उस समय तीन किलोमीटर स्थित मीडल स्कूल में पढ़ रहे थे। वह मीडल स्कूल उस थाने से एक किलोमीटर आगे पड़ता था। पुलिस की कार्यवाही, हथकड़ी लगे लोग, ट्रकवालों से वसूली करते पुलिस वालों को हम लोग रोज ही आते जाते देखा करते थे। उसी समय हम लोगों को महसूस हो रहा था कि पुलिस का मतलब गरीब को फसाना और सताना तथा अमीरों की रक्षा करना होता है।

दिलेर नौजवान के छूटने के दूसरे दिन पत्रकार लोकनाथ श्रीवास्तव हमारे पाही पर आए, सर्दी के मौसम के कारण स्कूल बंद था और आलू की रखवाली के लिए हम लोग पाही पर ही थे। उन्होंने आकर पिता जी के बारे में पूछा, हमने बताया कि वे आलू बेचने रात को ही ट्रैक्टर के साथ मंडी गए हुए हैं। सुबह तक आ जाते थे, शायद लेट हो गया है।

पत्रकार लोकनाथ श्रीवास्तव को अपने घर की परंपरा के अनुसार गुड़ देकर पानी पीने को दिया तथा खटिया बीछा दी और बैठने के लिए कहा। वे आराम से बैठे और गांव में दो दिन पहले घटी घटना के बारे में पूछने लगे। उन्होंने पूछा वह नौजवान कैसा है? उसके परिवार आदि के बारे में, फिर हमें लेकर उसके घर गए, वहां अनेकों लोगों से पूछताछ किया। लगभग तीन बजे के करीब वे पाही पर आए और उस समय तक पिता जी आ गए थे, उनसे मिले और उनके साथ चायवाले दुकानदार के पास भी गए थे। हमें पता नहीं था कि वे पत्रकार हैं जब पिता जी शाम को पत्रकार साहब के बारे में बताया तो हमें भी पता चला अखबारों में लिखने वाले ऐसे ही पत्रकार होते हैं जिन्हें गांव के लोग न्याय का देवता समझते हैं।

इधर पिता जी को आलू में जबरजस्त घाटा लगा था। ₹ 500 प्रति क्विंटल के फरूखावादी बीज खरीद कर बोई गई आलू का दाम मंडी में ₹100 में भी कोई लेने को तैयार नहीं था। बोरा और भाड़ा काटे आलू ₹80 प्रति क्विंटल बिकी थी। घर के सारे परिवार का श्रम छोड़ दीजिए, उससे बीज, पानी और खाद का भी दाम नहीं निकलता, मजदूरी तो बैठी गावै। यह कोई उसी साल की बात नहीं थी, बल्कि जब से हम लोग समझदार हुए और अपने खेतों में परिवार के साथ दिन रात काम किया। किंतु कभी आलू की खेती क्या, किसी खेती में फायदा नहीं हुआ। ऐसा लगता था दरसाल हम गरीब और मजबूर होते जा रहे हैं।

पिता जी हमारे, अपने जमाने के आठवीं टॉपर थे, उसी मीडिल स्कूल में जिसमें हम आठवीं में पढ़ रहे थे। वे प्रायः जानवर चराते समय या खेत में पानी देते समय, निराई, गुड़ाई ्अथवा ऊख की छोलाई और पेराई करते समय समझाते थे, बेटवा ठीक से पढ़ो, कोई नौकरी पा जाओगे तो जीवन बन जाएगा। उदाहरण देते कि भारत मास्टर को देखो, वह बहुत गरीब था फिर भी पढ़ाई नहीं छोड़ा, किसी तरह बीएससी कर लिया रेलवे में मास्टर हो गया है, कितने आराम से रहता है। एक एडेड हाईस्कूल के मास्टर थे, बड़े ज्ञानी बनते थे, विशेषकर औरतों के बीच, पिताजी के सामने आने से हमेशा डरते थे। एक बार पिताजी ने कहा था, उसको तो हिंदी पढ़ने नहीं आयी, पंडित जी के जूआड़ से मास्टर की नौकरी पा गया है, किंतु बच्चों का सत्यानाश करता होगा। इस प्रकार हमें भी दुनियादारी के जानकारी मिल रही थी और मन में पिताजी की अभिलाष को साकार करने की इच्छा बलवती हो रही थी। 

शीतलहरी बाद स्कूल खुला हम लोग उसी रास्ते स्कूल जाने लगे, पता चला मेरे गांव का कांड अखबार में निकला है और दारोगा चतुरानंद शुक्ला को कदाचार के आरोप में लाईन हाजिर कर दिया गया है। दलाल राणा सिंह पर भी कुछ होने वाला है। किंतु आगे क्या हुआ पता नहीं, न उसकी समझ ही थी। हां इतना मेरे मस्तिष्क में भर गया, जीवन में पढ़ना बहुत जरूरी है। पत्रकार बनना है तथा चौधरी चरण सिंह के जैसे किसानों के लिए काम करना है।

हमने मीडिल स्कूल की बोर्ड परीक्षा रिश्तेदार के यहां रुक कर दी। क्योंकि हमारा परीक्षा सेंटर हमारे घर से 10 किलोमीटर दूर दूसरे मीडिल स्कूल में था। परीक्षा का रिजल्ट आया और पता चला की स्कूल में तीसरा नंबर आया है और फर्स्ट डिविजन में पास हुआ हूं, खुब खुश हुआ। अब मीडिल स्कूल के मास्टर मुंशी राम का कथन कि "साइंस पढ़ना, भूत पिचाश सब भाग जाएगा। दुनियां को जानने की एक नई दृष्टि मिलेगी।" की लाइन का अनुपालन करते हुए अपने विषय की सर्वोच्च डिग्री हाशिल किया।

किंतु अब समझ में सारे खेल आने लगे हैं, लोक विश्वास को बेचने वाले पत्रकार और मीडिया के सत्यानाश के कारनामे समझ में आने लगे हैं। हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी किसान गरीब रहने पर अभिशप्त क्यों है? उसके ताने-बाने समझ में आने लगे हैं। दलाल राणा सिंह, दारोगा चतुरानंद शुक्ला और चायवाले दुकानदार व्यापारी के कारनामे और गठबंधन समझ में आने लगे हैं--------

                                     

लोकनाथ श्रीवास्तव जैसे पत्रकारों के कारण जो मीडिया और पत्रकोरों को देवत्व मिला था, वह जनता में खत्म हो चुका है। अब तो ये पत्रकार चायवाला दुकानदार बन गए हैं जो सच्चे और ईमानदार को ही फंसाते हैं, क्योंकि वे डरपोक हो चुके है, उनमें सच्चाई मर गई है, वे धनपतियों के पक्ष में दलाली करने लगे है और दलाल हो गए हैं। क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी जी माफ करना, जनता में मीडिया और उसके दलालों (पत्रकारों) की कीमत कुत्ते जैसी हो गई है। टीवी अब कोई देखता नहीं और ये बेचारे मनमाना भौंकते रहते हैं। सही सही होता है और गलत गलत होता है लेकिन मीडिया के दलाल अपने मनमाने गलत को सही और सही को गलत करने की चापलूसी करते करते भौंकने लगते हैं।

अब तो इनको कोई अपने बीच बुलाता भी नहीं और यदि ये दलाल पत्रकार चले जाते हैं तो लोग दूर-दूरा कर भगा दे रहे हैं। किंतु हम लोकनाथ श्रीवास्तव को कैसे भूल सकते हैं जो हमारे जैसे बच्चों के अंदर गरीबों के हित के लिए, किसानों के हित के लिए, सामान्य नागरिकों के हित के लिए सत्ता से लड़ते थे और सत्ता उनसे कांपती थी। लोकतंत्र जमीनी स्तर पर मजबूत हो रहा था, मीडिया पर विश्वास और पत्रकारों का गौरव था। 

किंतु आज मीडिया और पत्रकारिता मात्र प्रचारतंत्र के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया है, पूंजी के स्वामित्व में उपजी यह मीडिया जिसने अपने खरीदे हुए पत्रकारों के नाक में नकेल डाल रखा है और जैसा भौंकने को कहती है, बेचारे वैसा ही भौंकते हैं। इसलिए लोग डंडे से मारने लगे हैं। 

आइए हम लोकतंत्र, सबकी भलाई और लोकमंगल के लिए लड़े, पढ़े और आगे बढ़ें। इसके लिए तलाश है वैकल्पिक मीडिया की जिसको सोशल मीडिया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध करा रही है। जो हमारे पेट पर लात मारे, हमें उसके पेट को भरने वाले सारे रास्तों को रोकना होगा। मूल्यहीन मीडिया का करे बहिष्कार और सोशल मीडिया के साथ बने सच्चे पत्रकार।
 
                                  क्योंकि सोशल मीडिया ही वैकल्पिक मीडिया है।
*******

श्रोत: फोटो इंटरनेट के सौजन्य से।



इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अहीर शब्द की उत्पत्ति और उसका अर्थ

प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की काव्य रचना : युग की गंगा

हिंदी पखवाड़ा प्रतियोगिताओं के लिए प्रमाण-पत्र