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बचपन के सपने

ये बचपन भी गजब होता है, बड़ी छोटी छोटी यादें हैं उसकी, जो दिल के किसी कोने में आज इस उम्र में भी समाई हुई हैं। लगता ऐसे था मनो परियों की कहानी सच्ची हैं, परियों के लोक निधि में का खूब मन होता था सोचता था बड़ा होने पर उन परियो जैसा उनकी लोक में सुख से रंग बिरंगी दुनिया में जिएंगे। तितलियों की दुनिया रंगों से भरी होती थी, पीली वाली तितली बहुत मन को भाती थी; पीले रंग मुझे बचपन से ही बहुत प्यारा लगता था शायद घर में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की वजह से निकली पीतांबर धारी भी कहा जाता है और उनकी ऊपर सदैव पीतांबर इस तरह चमकता है कि मानो पूरा का पूरा कमरा सुनहरा हो गया। बचपन से सुनहरे से जुड़ाव के साथ पीले मुझे भा बेहद पसंद है। पीली तितलियों के अतिरिक्त नीली, काली, लाल, गुलाबी न जाने कितने रन की तितली होती थी। मेरे गेहूं के खेत में मटर के पौधे फैले हुए होते थे अतिथियों की तरह उसमें भी रंग बिरंगे फूल लगे होते थे, नीला फूल देखने में प्यारा होता था। मन कहता था कि नील गगन में उसको लेकर सैर करें। वह बचपन की नाजुक दुनिया और नाजुक नाजुक सपने सजाए हुए कब हम बड़े हो गए पता ही नहीं चला। धीरे धीरे स्कूल का

प्राकृतिक भारत और उसकी जातियां

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ध्यान से देखिए यह हमारा प्यारा भारतवर्ष है। इसकी प्राकृतिक दशा को देखिए, यह देश दक्षिण, आधा पश्चिम और आधा पूरब से समुद्र से घिरा है। उत्तर और पूर्वोत्तर की दिशाएं हिमालय पर्वत के दुर्गम पहाड़ों से घिरा है। जिसे इतिहास में कोई भी आक्रांता कभी पार नहीं कर सका यह ऐतिहासिक तथ्य और सत्य है। इसको देखकर कहा जा सकता है कि प्रकृति ने भारतीय उपमहाद्वीप को अपनी सुराक्षा घेरे में रखा है। पश्चिमोत्तर की सीमाएं भी लांघनीय पहाड़ों से घिरी हुई हैं। विदेशी आकांता और विभिन्न जातीय समूह इन्हीं रास्तों से भारत में समय समय पर प्रवेश करते रहे हैं।  प्राचीन काल में जब मनुष्य का जीवन बहुतायत में स्थिर नहीं था और वह समूह में रहता था , उस समय अनेक मानवीय समूहों ने समय समय पर भारत में प्रवेश किया और सुविधानुसार इस भूमि के अंग बन गए। उस समय पश्चिम और मध्य एशिया में कोई प्रमुख संगठित धर्म नहीं था। अतः भारतीय महाद्वीप में आने वाले समूह इसके अंग बनते गए और इस भूभाग पर रच बस गए। जिसके कारण उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक विभिन्न रंग,रूप और शारीरिक बनावट के भारतीय हमें देखने को मिलते हैं। इन समूहों के साथ अ

हिंदी पखवाड़ा प्रतियोगिताओं के लिए प्रमाण-पत्र

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                                                                         दोस्तों, हिंदी भाषा की पखवाड़ा के अंतर्गत आयोजित की जाने वाली प्रतियोगिताओं के लिए आप इस प्रकार प्रमाण-पत्र बना कर विद्यार्थियों को दे सकते हैं। हमने अपने विद्यार्थियों के लिए बनाया है, जिसे विद्यार्थियों के हित को ध्यान में रखते हुए सार्वजनिक करने का प्रयत्न किया गया है।

अहीर शब्द की उत्पत्ति और उसका अर्थ

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अहीर या आहिर शब्द का अर्थ होता है, वीर, बहादुर, निडर, भयहीन। यह शब्द संस्कृत के आभीर शब्द से बना है। यह शब्द आभीर जनजातियों  के लिए प्रयोग किया जाता है। ये जाति बहुत बहादूर और निडर स्वभाव की होती है। इनमें गोत्र और खाप परंपरा के अनुसार पंचायतें चलती है। इन्हें अपनी रक्त शुद्धि पर बहुत गर्व रहता है। भगवान श्री कृष्ण इसी जाति में पैदा हुए थे। वास्तव में समाज में यह मुहावरा प्रचलित है कि अहीर होना अर्थात निडर होना, साहसी होना। भारतीय समाज में स्त्रियों का सपना होता है कि उन्हें अहीर गुण वाला पति मिले। क्योंकि आभीर उच्चकोटि के प्रेमी होते हैं। बचन के पक्के होते है, साहस, वीरता के साथ-साथ इनमें दया, धीरता और रक्षा के भाव भरे होते हैं, शायद इसलिए नारी जाति इन पर बहुत भरोसा करती है और मन ही मन अहीर जैसे वर की कल्पना करती रहती हैं। आभीर जनजाति दुनिया की बहादुर और भयानक आक्रांता के रूप में प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। यह जनजाति अपने प्रारंभिक काल से घुमंतू प्रकृति की थी, क्योंकि इसके जीवन यापन का आधार पशुपालन था। गाय, भैंस , बकरी आदि का पालन करने के लिए घास के मैदान और मीठे पानी की आवश्य

लगता है ऐसा

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क्यों अब लगने लगा, पाकिस्तान की बराबरी करने लगे हम। पाकिस्तानियों-सा जीवन, जीने लगे हम। शासन हो गया है वैसा, प्रशासन हो रहा है वैसा। न्यायपालिका और मीडिया भी वैसी हो गई हमारी। लगता है पाकिस्तान से आगे निकल जाएंगे हम। अरबीस्तान या सीरिया बन जाएंगे हम। हम जीत रहे या हार रहे जानते नहीं हम।                     *****

ब्राह्मण और अब्राह्मण जातियों की सोच की टक्कर

ब्रह्मानंद ने कृष्णानंद को किया नहीं प्रणाम। कृष्णानंद ने पूछा पंडित जी क्यों हो नाराज। क्यों नहीं करता तुम मुझको प्रणाम उम्र , ज्ञान , उपाधि , धन , दौलत , बल , विद्या और सौंदर्य में हूं तुमसे महान। क्या कारण है यजमान , नहीं करते हो प्रणाम। ब्रह्मानंद बोला तुम कुछ भी हो जाओ , किंतु होते हैं ब्राह्मण ही महान। क्या तुम्हें दीखता नहीं शिखा , तिलक , जनेऊं और भगवा वस्त्र हमारा। जन्मना हम श्रेष्ठ है , यही है ईश्वर का विधान , इसलिए हे कृष्णानंद हमको करो प्रणाम। माना शिखा तुम रखा है , शिखा मैं रख लेता हूं , वस्त्र भगवा जनेऊं धारण कर तिलक विधान कर लेता हूं। सुनो! ब्रह्मानंद , करो प्रणाम विद्याज्ञान तुझे मैं देता हूं। सब कुछ कर लो कृष्णानंद , जन्म कहां से लाओगे। गुरु श्रेष्ठ भले हो जाओ तुम , जायते श्रेष्ठ नहीं हो पाओगे। जन्म तुम्हारा श्रेष्ठ है कैसे यह बतलाओ ब्रह्मानंद ? पितृ मुखा से , मात्रृ गुदा से कहां से तू जन्माया है। श्रेष्ठ हो तुम कैसे मानव से ? यह भ्रमाभिमान ही तुम पाया है। करो प्रणाम , भूलो अभिमान , नहीं तो अधम नर कहलाओगे। नहीं मानता श्रेष्ठ

लोकतंत्र की भाषा

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हिंदी की भाषा भारत की गरीब, अर्धशिक्षित और कमजोर वर्गों के लिए बरदान साबित हो रही है। जब कोई उनसे विशेषकर अंग्रेजी या अन्य भाषा में बात कर के उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करता हूं तो औसत भारतीय उससे हिंदी में बताने का आग्रह करता है और यदि कोई ऐसा मामला है जो वह उसे गर्व से पूछता है हिंदी में बताओं। मैं आप को एक दृष्टांत देता हूं-- मेरे साथ एक सहकर्मी मराठी महिला उत्तर कर्नाटक के एक विद्यालय में पीईटी-महिला (शारीरिक शिक्षा अध्यापक- महिला) का साक्षात्कार देने गई थी। बोर्ड ने उसे उपयुक्त  और योग्या पाया। किंतु अंतिम प्रश्न के रूप में उससे पूछा गया कि अधिकांश बच्चे      कन्नड़ भाषी होंगे, उनको कैसे सीखाएंगी। उस महिला ने तुरंत उत्तर दिया हिंदी में, क्योंकि हिंदी लभगभग सभी बच्चे थोड़ा बहुत समझते हैं। एक बोर्ड का सदस्य पूछा क्यों नहीं अंग्रेजी में ? उनका उत्तर था, अंग्रेजी से ज्यादा कन्नड़ के नजदीक हिंदी है। अतः महिला का उस अंग्रेजी माध्यम के ग्रामीण विद्यालय में चयन उनकी वेबाकी के कारण हो पाया। इस पूरे प्रसंग में एक भी हिंदी भाषी व्यक्ति नहीं चयन प्रक्रिया में नहीं था। मैंने हिंदी की वास्