पंछी का भगवान

 पंछी हूं नील गगन में, मैं उड़ जाता हूं,
धरती के हर कोने पर घूमने जाता हूं,
आसमान की गलियों गलियों को निहारता हूं,
धरती पर हर फूलों से मिल आता हूं,
विशाल समुंदर के कोने कोने में जाता हूं,
उनके अल्लाह ईश्वर ईशा का पता लगाता हूं,
क्या उनके भिन्न-भिन्न धर्म और भगवान बने हैं?
क्या अल्लाह के नाम पर जलीय जीव जंतु लड़ते हैं?

फिर हम धरती के फूलों से पूछता हूं,
हिंदू हो या मुसलमान, ब्राह्मण हो या दलित महान,
तुम्हें किसने खिलाया है, रंग बिरंगी रूप में सजाया है,
पूरी दुनिया में तुम्हें कौन फैलाया है अल्लाह या राम?
पूरी दुनिया में सुगंध फैलाते हो, हिंदू हो या मुसलमान?

फिर नीले आसमान में उड़ जाता हूं,
भगवान की गलियों में भटकता हुआ,
पहले उनके जीवन और उनकी सभ्यता समझता हूं,
सभी ख़ुदाओं का घर खोजता हूं,
सबसे पहले अल्लाह से मिलने जाता हूं,
पूछता हूं उनसे इस धरती पर जो इंसान हैं,
उनमें से कौन आपके हैं और कौन राम के हैं?
किसको मुसलमान और किस को काफिर बनाया है।

मैं भगवानों की गलियों में भटकता रहा,
वहां अल्लाह ईश्वर खुदा भगवान का,
अलग अलग घर नहीं खोज पाया,
मटकती हुई वहां कबीर की आत्मा से टकराया,
जिन्होंने मुझे अल्लाह ईश्वर खुदा और भगवान से मिलाया।
वहां देखा मैं ब्रह्म निराकार निस्सार फैला हुआ है,
उसे जैसा देखना चाहो वैसा ही वह होता है,
अल्लाह ईश्वर खुदा भगवान और रूप में दीखता है,
सच में गीता का कृष्ण का ब्रह्म रूप है वह।

हे मनुष्य! तुम नहीं जानपाए,
कबीर और गीता दिखाया है जिसको,
वही एक ईश्वर अल्लाह, उसी का अनेक नाम,
तुमने कपड़े, रंग, दाढ़ी-बाल, और किताबें लिखकर,
धर्म की अपनी अपनी दुकान चलाया,
अब निजी फायदे के लिए, धार्मिक पार्टी बनाया,
तुम सब अधर्मी, जनता को धर्म की नाव पर नचाया,
मनुष्य होकर भी मनुष्यता नहीं जान पाया,
स्वार्थ की अपनी-अपनी डफली बजाया,
मरकट तू! हम पंछी होकर ब्रह्म से मिल आया।

यह कविता कोरोना वायरस के दुष्प्रभाव और मज़हबी दुरात्माओं के कट्टर पन को देखते हुए लिखी गई।

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