जीवन और जगत

 जीवन और जगत एक विचारणीय विषय है,  जरा सोचिए इस संसार का निर्माण कैसे हुआ है , इस ब्रह्मांड का निर्माण कैसे हुआ और इस ब्राह्मांड के इस संसार में जो जीव जंतु और वनस्पतियों का निर्माण हुआ है वह भी अपने आप में एक चमत्कारी विषय है। सोचने की बात है इस जगत के सारे जीव-जंतुओं और वनस्पतियों का निर्माण, जीवन शैली और विकास में उनका आपसी क्या संबंध है। वैज्ञानिकों ने इसे समझने की बहुत कोशिश की और बहुत कुछ सीमा तक विकासवाद के सिद्धांत ने इस प्रश्न का उचित उत्तर देने में सफल होता दिखाई देता है। किंतु बहुत से प्रश्नों के उत्तर अभी भी उलझे से दिखाई देते हैं। उदाहरण के तौर पर इसे इस तरह कहा जा सकता है कि जो इनके बीच एक आवृत्ति क्रमिक संबंध है वह कैसे है? उसका निर्धारण कैसे होता है? वह किस शक्ति के कारण संचालित होता है और क्यों उसमें निरंतरता बनी रहती है?

इन्हीं प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए शायद मानव ने प्राचीन काल से विभिन्न प्रकार के प्रयोग करते रहे , इसी मानवीय प्रयोग का प्रतिफल है कि विश्व में विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों, सभ्यताओं और विभिन्न प्रकार के धर्म आदि का जन्म हुआ। जिसके कारण भिन्न-भिन्न वेशभूषा, जीवनशैली, रहन सहन, खानपान के तौर  तौर-तरीके आदि का जन्म हुआ। धीरे-धीरे ये परंपराएं, जीवन शैली स्थिर होते गए तथा नियम बंद होती गई और जिसके कारण धर्मों का विकास हुआ।

मनुष्य के जीवन काल की अवधि निश्चित है वह संक्षिप्त है। वह संपूर्ण में इस संसार को नहीं देख पाता है अतः वह संसार को खंड में देखता है, जिसके कारण संसार को समझना उसकी बुद्धि के परे की बात होती।  इस वजह से उसने प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवी देवता के रूप में पूजने लगा।  जब छोटे-छोटे दैवीय शक्तियों में मनुष्य की पक्षधरता के कारण आपस में संघर्ष हुआ तो उनकी सीमाओं का प्रकटीकरण भी हो गया। इस प्रकार विजेता वर्ग का देवी देवता बड़ा होता चला गया। धीरे-धीरे उसका और भी विस्तार हुआ और एकीकरण की तरफ  बढ़ा, वर्तमान में जिसे एकेश्वरवादी धर्मों जैसे ईसाइयत अथवा इस्लाम में इसे देखा जा सकता है। किंतु ये धर्म भी जगत के निर्माण के सत्य स्वरूप को पहचानने में असफल रहे और एक वर्गीय समूह मात्र बन कर रह गए।

 किंतु यह प्रश्न अभी भी बाकी है जीवन और जगत का क्या संबंध है? जो भी विकास हुआ, जो भी धर्म आए, सभी मनुष्य के लिए, सभी जीव जंतुओं के लिए और सभी वनस्पतियों के लिए रास्ता नहीं खोज पाए। परंतु इनसे आपस में टकराहट का जन्म जरूर हुआ, किंतु सद्भाव , सह अस्तित्व और विकास की परंपरा कहीं न कहीं बाधित होती रही। जो कि प्रकृत्ति की प्रवृत के विरुद्ध है। प्रकृति में यह हर जगह, हर समय और हर विधि से देखा जा सकता है कि वह आपस में विरोधी नहीं बल्कि एक दूसरे प्राकृतिक अवयवों की सहयोगी होती हैं।

प्रकृति की इसी शक्ति और उसकी न्याय प्रियता को भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत में अर्जुन को दिखाया था और यह बताया था कि इस संसार के नियम निरंतर गतिमान है इसमें जीव अथवा जीवन एक अस्तित्व की इकाई के रूप में उपस्थित हैं, जीवन प्रकृति के अनुक्रम को प्रभावित कर सकते हैं  किंतु इसकी निरंतरता और न्याय प्रियता को समाप्त नहीं कर सकते। ब्रह्म की इस न्याय प्रियता को धर्म कहा गया है, गीता जिसका साक्षात उदाहरण है।

जीव अर्थात मनुष्य ने इस बात को नहीं समझा, वह प्रकृति पर विजय करता गया और वह सोच रहा है कि प्रकृति को वह किसी तरह अपने अनुसार संचालित कर सके। किंतु ऐसा नहीं हो सका, प्रकृति अपनी जरूरत के अनुसार चीजों को बदल लेती है।  आज जब मनुष्य अपने को सर्व शक्तिशाली जीव समझता है, तो एक छोटा सा कोरोनावायरस नाम का जैव तत्व ने पूरे संसार के मनुष्यों के नाक में दम कर रखा है और मनुष्य नहीं समझ पा रहा है कि वह क्या करें? और कैसे इस क्षीण-अविकसित जैव तत्व से निजात प्राप्त करे। जिसने पूरे विश्व में मृत्यु का भंडार लगा दिया है। चिंता की रेखाएं लंबी है किंतु समाधान की संभावनाएं मात्र हैं।  क्या इसे ब्रह्म के प्रकृति की निरंतरता का न्यायिक चक्र कह सकते हैं? यहां से हम जीव और जगत को समझने की कोशिश करें, तो शायद एक कदम और आगे बढ़ कर,  इस संसार को समझ पाएंगे।


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