संकल्प
प्रिय पाठक दोस्तों, इस पर आप के लिए जो कविता है वह समसामयिक घटना को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में देखती हुई, उस दर्द को व्यक्त करती है जो नारी जाति और कमजोर जातियों को कथित हिंदू सनातनी धर्म के खूंखारपन के कारण आज आधुनिक युग में भी झेलने के लिए मजबूर कर रहा है। आशा करता हूं कि उभरते कवि श्री आर एन यादव की यथार्थ वयानी वाली 'संकल्प' कविता सोचने के लिए प्रेरित करेगी.............
****संकल्प****
कितने ही हैवानों ने मिलकर,
मानवता का अंतिम संस्कार किया।
हबसी, बेजमीर खूनी भेड़ियों ने,
इंसानियत का संहार किया।
संविधान के रखवालों ने भी,
बढ़ चढ़कर हैवानियत का साथ दिया।
सारे सबूत मिटा डाले,
दोष परिजन पर ही लाद दिया।
चांदी के जूते की ताकत,
मानवता पर भारी है।
लक्ष्मी माता की चकाचौंध से,
चहुँओर छायी अंधियारी है।
जमीर ,चेतना,विवेक शून्य,
इन सब की गई मति मारी है।
अन्याय गर न रोक सके,
तो अगली तुम्हारी बारी है।
क्या दुनिया का दस्तूर यही,
निर्बल ही सताए जाते हैं।
शेरों की बलि नहीं दी जाती,
बकरे ही चढ़ाए जाते हैं।
रामराज्य की दुहाई देने वाले,
निज भगिनी,सुता भूल जाते हैं।
वासना,आसक्ति के वशीभूत,
निर्बल को ही शिकार बनाते हैं।
जुल्मियों के जुल्म से आहत हो,
अब जुल्म नहीं सह पाएंगे।
जिस जुल्मी का अब उठा हाँथ,
वह हाँथ कलम कर डालेंगे।
घुट घुट कर जीने से अच्छा है,
रणभूमि में जौहर दिखलाना,
आबरू बचाने की खातिर,
नव चंडी रूप हम धारेंगे।
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