गरीबों और किसानों के आंसुओं का मजाक बनाती : मुनाफाखोर दलाल भारतीय मीडिया

नए कृषि कानूनों को हटवाने के लिए बैठे किसानों का दर्द असहनीय हो गया है, कल्पना करें कितनी ठंड है तापमान 6° डिग्री सेल्सियस है। जरा सोचें:

 दोस्तों लिखने की इच्छा नहीं हो रही है किंतु मन शांत भी नहीं हो रहा है। पिछले तीन महीनों से किसान भाई अपनी वाजिब मांग लेकर शासन से हर स्तर पर कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। किंतु सरकार उसे सुन नहीं रही है। किसानों ने अपनी मांग को संवैधानिक तरीके से शांतिपूर्ण आंदोलन और प्रदर्शन के माध्यम से सरकार के पास पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे। प्राय: लोकतंत्र में जनता की इच्छा पर बनी सरकारों के सामने जनता की इच्छा को प्रकट करने का यही सही तरीका है। जब किसी मांग या आंदोलन में बड़ी संख्या में जनभागीदारी होती है तो इसका मतलब होता है। उस विषय से बहुत से लोग प्रभावित होने वाले हैं और उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से मांग करते हुए उसमें सुधार और प्रभावित लोगों के हितों की रक्षा करना, सरकार से अपेक्षित होता है।

किंतु सरकार उनकी मांगे मान नहीं रही है और उन्हें कह रही है कि हम किसानों का फायदा करा रहे हैं। सीधा सा नियम है, देश के अन्य भागों में जहां मंडी नहीं है और गरीब प्रदेश है जैसे बिहार, वहां आप पहले अपनी योजना से गरीबों को फायदा पहुंचा कर दिखा दीजिए, लोग अपने आप फायदे की ओर झुक जाते हैं। किंतु देश की जनता अब झुठे वादों और ठगबाजी से ऊब गई है। सरकार की विश्वसनीयता आम लोगों में लगभग खत्म हो गई है। लोग गरीब है, अशिक्षित हैं, मजबूर हैं, उनको सरकार और सरकारी तंत्र शोषण करते हुए केवल डरा रहा है। आखिर जब इतना शोषण हो रहा है तो आम आदमी रोए भी नहीं। यदि पीड़ा से जनता कराहती है तो उस पर सरकारी तंत्र दमन करने लगता है। समझ में नहीं आ रहा है, कहां जाएं, क्या करें?

मीडिया से बहुत आशाएं रहा करती थीं, किंतु आज की मुनाफाखोरी में लिप्त दलाल मीडिया, गरीब को खलनायक और खलनायकों को नायक के रूप में देश के सामने परोस रही है। इस प्रकार गरीब आदमी अपनी वेदना को भी अपने जैसे पीड़ितो तक पहुंचा नहीं पा रहा है। मीडिया से अपेक्षा होती है कि वह जन-सरोकारों की बातें सरकार और जनता के बीच पहुंचाए और न्याय प्रियता की स्थापना में योदान करे। किंतु वर्तमान धनियों के नियत्रंण वाली मीडिया पूरी तरह गरीबों और कमजोर लोगों के विरुद्ध धनियों को लाभ पहुंचाने के लिए निर्लज्जता से खेल खेल रही है।

आज तो हद तब हो गई, जब किसानों के रोने पर मीडिया उनके आंसुओं का मजाक उड़ा रही है। उसमें बैठे कुछ लोगों की बातों से यह पता चलता है कि उनकी चिंता यह है कि गरीब लोगों के पास पैसा कहां से आता है? गरीबों और कथित छोटी जाति में पैदा हुए लोग क्यों पढ़ लिख पा रहे हैं? क्यों धनी हो रहे हैं? उनके मानस में किसान और कथित नीची जातियों का जो चित्र है, उसमें वे सदैव बेसहारा, फटेहाल, अशिक्षित और गरीबी, लाचारी में गिड़गिड़ाता हुआ होना चाहिए। वह स्वयं अपने आप से नहीं पूछते उनके पास पैसा कहां से आता है? बिना कुछ काम-धंधा किए कोठियां बनती जा रही हैं, जनता को तुम्हारी दलाली मालूम है। मतलब यह कि हमारे देश की मीडिया में बैठे हुए लोग एक ऐसी सोच के है, जिनके मानस में गरीबो और किसानों के लिए नफ़रत और द्वेष भरा हुआ है। इस मानस के लोगों को लोकतंत्र की मजबूती से, गरीबों की शिक्षा से, उनके कपड़े से और यदि वे अच्छी तरह से खाने-पीने लगें, तो इन मानसिक रोगियों को गरीब जनता के प्रति जलन होने लगती है। इसी जलन की वजह से देश का आम नागरिक परेशान हो रहा है, वास्तव में यही खास सोच के लोग ही देश के असली गद्दार हैं। इन अवसरवादियों को पहचानें, ताकि हमारा लोकतंत्र बचा रहे और आइए हम अपने देश को एक महान लोकतंत्र की ओर ले जाकर एक और कदम आगे बढ़ाएं।

जय जवान, जय किसान, जय हिंदी ।


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