दोस्तों प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल के जीवन रेखा पर आधारित अंतिम सोपान आप के समक्ष प्रस्तुत है-
तृतीय सोपान : सेवावकाश से मृत्यु पर्यन्त (1971 से
2000)
प्रगतिशील काव्यधारा
में चोटी पर स्थान बना चुके कवि केदारनाथ
अग्रवाल 4 जुलाई, 1970
ई. को सरकारी वकील के पद से सेवा-निवृत्त हुए। तत्पश्चात वे वकालत
की तरफ देखे भी
नहीं, पूरी तरह कविता और
साहित्य की साधना
में समर्पित हो गए। सन् 1973 ई. में केदार जी ने एक बड़े जमावड़े के साथ बांदा में
‘अखिल भारतीय प्रगतिशील
लेखक’ सम्मेलन
का आयोजन किया। यद्यपि
केदार इसके पहले अनेक
क्षेत्रीय और राष्ट्रीय
स्तर के सांस्कृतिक
कार्यक्रम सफलता पूर्वक करवा चुके थे।
लेकिन 1973 के ‘प्रलेस’ सम्मेलन से केदार जी को विश्व-विश्रुत मिली। इस सम्मेलन
में महादेवी
वर्मा, निराला, पंत, नागार्जुन, नीरज, भवानी प्रसाद मिश्र आदि नामी-गिरामी हस्तियों ने भाग लिया था। इस सम्मेलन की
दिल्ली से लेकर बांदा तक खूब
चर्चा हुई। इस
प्रगतिशील साहित्यिक
सम्मेलन के आयोजन में बेबस विधान सभा
के तत्कालीन सीपीआई विधायक
देव कुमार यादव
ने महत्त्वपूर्ण योगदान
दिया था।
केदार मंच पर अपनी कविता प्रस्तुत करने से बचते थे। केदार को इस बात का आभास था कि उनकी कविता
मंचीय कविता नहीं
है, केदारनाथ अग्रवाल इन आयोजनों को परंपरागत ढंग से न चलाकर जनवादी अनुशासनों से चलाते रहे। आने
वाले कवियों को यथोचित
मानदेय, भोजन
एवं ठहराने के अतिरिक्त
पेय आदि की व्यवस्था उन्होंने कभी नहीं की। यदि कभी किसी कवि ने उनसे इसकी मांग कर ली तो दुबारा वह कभी नहीं बुलाया गया। इसलिए इसकी मांग का इनसे कोई साहस नहीं करता था। वे “मार्ग व्यय पहले से निश्चित करके, उस पर कवि की स्वीकृति
आ जाने पर ही कवि को
आमंत्रित करते थे,
यदि कोई कवि स्वीकृति देने के
बाद आयोजन
में नहीं आता था तो दुबारा उसे फिर नहीं बुलाया जाता था। कुछ कवियों के पत्रों की बानगी यहाँ पर दे रहा हूँ। भवानी प्रसाद मिश्र के पत्र की बानगी
देखिए ''प्रिय भाई! २७/१ को निस्संदेह बांदा पहुँच जाऊँगा। यह तिथि बिल्कुल ठीक है मुझे याद नहीं है पिछले वर्ष आपने क्या
दिया था, स्नेह ही याद है और
उस मामले में मैं कुछ नहीं
कहूँगा, आप वहाँ की परिस्थितियों में जो अधिक-अधिक ठीक समझे
सो करें। विनीत-भवानी प्रसाद मिश्र 13-01-1961, 56 सुन्दर नगर, नई दिल्ली।”15 इससे पता चलता है कि केदार अपनी विचार से बहुत गहराई से जुड़े हैं।
केदार इस समय तक जनवादी कवि के रूप में विश्व प्रसिद्ध हो चुके थे। उनकी कविताओं का रूसी, जर्मन, चेक
तथा अंग्रेजी में
अनुवाद हो चुका था। सन् 1973 ई. में उनके काव्य संकलन
‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ को उसके प्रगतिवादी, जनवादी, मार्क्सवादी चेतना और समूचे विश्व के करोड़ों-करोड़
जनता की वाणी के पहचान
के रूप में ‘सोवियत लैंड नेहरू’ पुरस्कार
से सम्मानित किया
गया। जिसके अंतर्गत सन् 1974 ई. में केदार रूस की यात्रा पर गए। केदार को पूरा रूस देश गुलाबों का देश लगा। वहाँ
उन्होंने चारों ओर
खुशहाली, हरियाली और मानव सेवा के प्रति लगन की भावना देखी। वहाँ से लौटकर एक संस्मरणात्मक यात्रा वृत्तांत ‘बस्ती खिले
गुलाबों की’ लिखा, जो 1975 ई. में प्रकाशित हुआ। इसके बाद केदार जी कविता लेखन में और
सक्रिय हो गए।
25 अप्रैल, 1977 ई. में
केदार के पिता
का उनके गाँव कमासिन में निधन
हो गया। जिसके कारण
वे पूरी तरह से
अकेले हो गए। सन् 1981 ई. में उन्हें उत्तर प्रदेश
हिंदी संस्थान ने उनकी सेवाओं के
लिए पंद्रह हजार
रुपए की अभिनंदन-प्रतीक-राशि पुरस्कार
स्वरूप भेंट कर स्वयं
को
गौरवान्वित किया। 11,12,13 सितंबर,
1981 में मध्य
प्रदेश प्रगतिशील
लेखक संघ की भोपाल इकाई ने त्रिदिवसीय “महत्व
केदारनाथ अग्रवाल” नाम
से कार्यशाला
आयोजित किया जिसमें कवि का सम्मान और सर्वपक्षीय मूल्यांकन किया गया।
केदार की
धर्मपत्नी श्रीमती
पार्वती देवी उम्र
ढलने के कारण अस्वस्थ रहने लगीं थीं।
उन्हें पार्किंसन की बीमारी
थी। केदार स्वयं
उनकी देख-रेख करते थे, अपनी प्रियंवदा की सुश्रुषा
ऐसा करते थे कि वे सदैव
सद्य स्नात दिखाई देती थीं। किंतु
1985 ई. के सितंबर महीने के सप्ताहांत में
कुर्सी से गिर जाने के कारण उनके बायें पैर के कूल्हे की हड्डी टूट गई। कुछ दिनों तक बांदा में इलाज चला किंतु कोई स्वास्थ्य लाभ न होते देख उनके बच्चों को सूचना दी गई। बेटे अशोक कुमार माँ को चेन्नई ले गए और 9 नवंबर को उन्हें विजय नर्सिंह होम में भर्ती कराया। वहीं चेन्नई से 10 दिसम्बर,
1985 को केदार अपने प्रिय
मित्र डॉ
रामविलास शर्मा को पत्र लिखा कि- “संकट
गहरा रहा है, वह बच नहीं सकतीं।”16 26
दिसम्बर, 1985 को अपने मित्र रामविलास को काव्यात्मक संदेश भेजते हैं कि
– “मौन पड़ी हैं
प्रिया प्रियंवद / बिना बोल का मुँह
खोले / प्यार पुलक की आँखें मींचे / दुख
में डूबी साँसे
लेतीं / पास खड़ा
मैं / कविताओं का घेरा
डाले / महाकाल को रोक रहा हूँ / यहाँ न आए, उनका जीवन जय पाए।”17
7 जनवरी, 1986 को
केदार ने डॉ. शर्मा को फिर
लिखा कि- “कभी कभी धैर्य टूटने
लगता है। फिर जल्दी
जल्दी अपनी चेतना
पाने की कोशिश
करता हूँ, और
स्वयं जीते हुए
अपनी प्रिया प्रियंवद को जिलाए रखता हूँ। उनकी देह तो नहीं
रहेगी, पर चेतना में
वह हमेशा जीएंगी। यही लड़ाई लड़
रहा हूँ। मैं इस लड़ाई में मौत
की हार ही देखता
हूं।”18
किंतु कविताओं का घेरा उनके पत्नी के पार्थिव शरीर को बचा नहीं पाया। 28 जनवरी, 1986 को सायं 6.15 बजे प्रिया-प्रियंवद का निधन हो गया। पत्नी पार्वती देवी
का निधन केदार को बहुत
गहराई से हिला दिया। 4 मार्च, 1986 के पत्र में
केदार लिखते हैं- “प्रिया-प्रियंवद पार्वती तो प्रेम योगिनी थीं। उनकी मूर्ति बराबर सामने आती है। वह मरी नहीं। उनका चेतन रूप मेरे दिल में है। काव्य बन गई हैं। 1988 ई. में
प्रकाशित उनका काव्य संकलन- ‘आत्मगंध’ जिसे केदार ने ‘दीर्घायु की कविताएं’ कहा है,
इसी चेतना
का दस्तावेज
है।”19
अप्रैल में, उनका 75वां जन्म
दिवस परिमल प्रकाशन की ओर से बड़े धूम-धाम से मनाया जाने वाला
था। क्योंकि
उस वर्ष जहां प्रगतिशील
साहित्यिक
आंदोलन 50 वर्ष का हो रहा था, तो वहीं परिमल प्रकाशन ने
सफलता पूर्वक अपने प्रकाशन का 25 वर्ष पूरा कर रहा था। किंतु केदार जी अपनी अर्धांगिनी
के दिवंगत होने से बहुत दुखी थे। अतः उनकी स्थिति देख कर
उसे टाल दिया गया। जब उनकी मानसिक दशा थोड़ी सामान्य हुई तो उनकी सहमति से यह आयोजन 20-21
सितम्बर, 1986 को डी.ए.वी. इंटर कॉलेज बांदा में रखा गया। इस
भव्य समारोह को
‘सम्मान केदारनाथ अग्रवाल’ का नाम दिया गया। इस समारोह में देश भर के कवि-लेखक अपनी विचार धारा से ऊपर उठ कर, अपने खर्चे से बांदा पधारे। स्वयं डॉ. रामविलास शर्मा और दिल्ली के कुछ साहित्यकारों
ने भाग ले कर इस आयोजन की सफलता के मानक स्थापित किए। इस समारोह में डॉ. रामविलास
शर्मा ने ‘केदारनाथ अग्रवाल की राजनीतिक कविताएं’ शीर्षक से अपना लेख पढ़ा तथा केदार जी की कविता
जिंदगी’ (देश की छाती
दरकते देखता हूँ) का सस्वर वाचन किया। केदार के प्रिय मित्र रामविलास शर्मा इस अवसर पर आठ दिन उनके साथ रहे जो अपने आप में
एक महत्व की बात है। इस अवसर
विशेष पर
‘प्रगतिशील काव्यधारा
और केदारनाथ
अग्रवाल’ नामक डॉ. रामाविलास शर्मा की पुस्तक के साथ-साथ चार अन्य पुस्तकों का भी विमोचन हुआ। इस आयोजन की 30-30
मिनट की सात
कड़ियां लखनऊ दूरदर्शन
से प्रसारित की गई
थीं। कवि केदार के जीवन
पर आधारित यह एक
ऐतिहासिक आयोजन था। इस समारोह
के दबाव में साहित्य अकादमी ने उनके काव्य संग्रह ‘अपूर्वा’ को 1986 का
‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार
प्रदान कर उन्हें
सम्मानित किया तथा
अपनी साख बचाई। इस आयोजन के बाद
केदार अपनी पत्नी
के निधन के दुख से थोड़ा उबर सके और बांदा के बाहर कुछ आयोजनों में सम्मिलित भी हुए थे।
वे 19 नवंबर, 1986 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित निराला व्याख्यान माला के
अंतर्गत ‘छायावादोत्तर हिंदी काव्य परिदृश्य’ पर व्याख्यान दिए। मई 1987 में लखनऊ
जा कर ‘प्रयोजन’ पत्रिका का उद्घाटन किया। जून 1987 में मद्रास गए। नवंबर में
‘बच्चन’ के जन्मदिन समारोह में भाग लेने दिल्ली गए। फरवरी में पुनः मद्रास गए,
और वहाँ से मार्च में ऊटी भी गए। 26 अक्टूबर, 1991
को केदारनाथ जी का अस्सीवां जन्म वर्ष इलाहाबाद के हिन्दुस्तान ऐकेडमी में परिमल
प्रकाशन ने मनाया। इस अवसर पर ‘मित्र संवाद’ का लोकार्पण किया गया। ‘मित्र संवाद’
केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा के पत्रों का अनूठा संग्रह है जिसका सम्पादन
डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. अशोक त्रिपाठी ने किया है।
पच्चीस
और छब्बीस नवंबर, 1991 की रात
में केदारनाथ जी
के घर में चोरी हो
गयी थी। जिसमें दस हजार
रुपया और सोवियत लैण्ड पुरस्कार
का मैडल चोरी हो गया। 15 फरवरी, 1992 में केदार जी ने भोपाल
“मैथिलीशरण गुप्त” सम्मान लेने गए और फिर
वहीं से मद्रास
चले गए। 22 दिसम्बर, 1996 को झाँसी गए और झाँसी विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें
डी.लिट. की मानक उपाधि
से सम्मानित किया गया। इसके बाद
केदार जी बाहर कहीं नहीं
गए, बाँदा में ही रहे।
केदार
जी को कई पुरस्कार और सम्मान मिले हैं, जिन्हें केदार जी ने विनम्रता
के साथ स्वीकार किया। किंतु
केदार के लिए
इन पुरस्कारों का कोई महत्व नहीं
है, बल्कि इन पुरस्कारों का महत्व केदार को दिए जाने से बढ़ जाता है। उनके लिए सबसे
बड़ा पुरस्कार है, लोगों के दिलों में जगह बनाना, लोगों
का उनके प्रति स्नेह और प्यार। यह जनता का वही
स्नेह और प्यार है, जो कबीर, तुलसी,
सूर, नानक, मीरा,
निराला, टैगोर और नजरूल इस्लाम को मिला हुआ है। जिनके गीत खुशी और हँसी, दुख और विषाद के समय हृदय
से ओठों पर फूट पड़ते हैं। आजादी की एक उड़ान भर दिल में हौसला बढ़ाते हैं। यहाँ केदार शब्द ही स्वतंत्रता और निर्मलता बन लोक जगत में गूँज रहा है।
सरसों
के खेत में
केदार
खोज
रहे हैं ताज़गी
और गा
रहे हैं ‘मेरा मन
डोलता
कि
तेरा तन डोलता।’ 20
पत्नी के मृत्यु के आघात से केदार जैसे ही संभल रहे थे कि उन पर एक वज्रपात हुआ। उनके परम स्नेही मित्र डॉ रामविलास शर्मा का 30
मई, 2000 को देहावसान हो गया। यह खबर केदार जी की लिए किसी हृदय
घात से कम नहीं थी। शारीरिक रूप से वे कमजोर हो ही चुके थे, किंतु
मित्र की मृत्यु
की घटना उन्हें
मानसिक रूप से भी
तोड़ दिया। अब मन की बात वे किससे कहेंगे और अब उनको कौन धीरज धराएगा। मित्र
शर्मा के निधन
के समय केदार की उम्र
लगभग 90 शाल की
हो रही थी। प्रिय
पत्नी हे मेरी तुम प्रियंवदा पार्वती, प्रिय मित्र रामविलास
शर्मा और मन बोध सखा
नागार्जुन के पंचभूत में
मिल जाने से केदार बहुत
मानसिक धरातल
पर अकेले हो गए थे। घर
में भी वे अकेले रहते थे। भतीजे भोजन
और आवश्यक वस्तुओं का तो प्रबंध
कर देते थे,
लेकिन मन के भाव
को समझ कर सांत्वना देने वाला कोई नहीं रह गया था।
केदार की बचपन से आदत थी कि वे अपना काम स्वयं करते थे। इसी आदत से मजबूर हो कर एक दिन रात के अंधेरे में लड़खड़ा कर गिर पड़े। जिससे
उनके जांघ की हड्डी टूट
गई। रात भर यातना झेलते रहे। सुबह होने पर उनके भतीजों ने डाक्टर को दिखाया। इलाज चलता रहा, कोई लाभ नहीं हुआ। अंत
में 22 जून, 2000 ई. को वे अपने परम स्नेही मित्र डॉ. रामविलास शर्मा से मात्र 23 दिन पश्चात महाप्रयाण कर गए। वे
जीवन पर्यंत काव्य
रचते रहे, निधन
से कुछ माह पहले
आकाशवाणी इलाहाबाद की एक औपचारिक
भेंट में कविता लिखने के बारे में उन्होंने कहा था कि
‘कविता मेरे द्वारा
तबतक लिखी जाती रहेगी जबतक मौत
इसे रोक न दे।’
केदार के दिवंगत होने पर विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संप्रेषण
माध्यमों ने विभिन्न प्रकार से
अपनी अपनी श्रद्धांजलियां दीं। राष्ट्रीय दूरदर्शन दिल्ली ने अपनी श्रद्धांजलि में लिखता है- ‘शोषितों की आवाज कवि केदार का स्वर थमा।’
जिसमें कवि के काव्य
की मुख्य
संवेदना कि विशेषता
प्रकट होती है।
बीबीसी हिंदी सेवा लंदन अपनी संवेदना प्रकट करते हुए कहता है कि ‘केन का कवि केदार
पंचतत्व में विलीन।’ समाचार
पत्र जनसत्ता नई दिल्ली अपने मुख्य पृष्ठ
पर शीर्षक
लिखता है– ‘जनकवि केदार का निधन
हिंदी साहित्य की अपूर्णनीय क्षति।’ मृत्यु तो अटल
सत्य है। परंतु
‘काल पर जीवन की
जयघोष’ करने वाले
कवि केदारनाथ अग्रवाल का जीवन एक
खुली किताब की
तरह है। उनके जीवन का प्रतिक्षण स्वयं
उसे प्रतिबिंबित
करता है। जीवन-जगत
में व्याप्त
प्रतिरोधों के बावजूद कवि ने अपनी ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी वैज्ञानिक विचार की दृष्टि से संसार को देखा, जीवन जिया और
रचनात्मक संदेश दिया। इसी कारण
उनका पूरा जीवन
बनावटीपन से अलग
सामान्य, सरल
और सहज था। वे
पूरे जीवन भर शाश्वत मूल्यों और प्राकृतिक
सिद्धांतों का अनुपालन
कर सदा ऊर्जावान
बने रहे। उनके इन्हीं गुणों के कारण
पूरे बांदावासी उन्हें ‘बाबूजी’ कह कर
संबोधित करते थे। ‘बाबूजी’ शब्द का बहुत
बड़ा गुणार्थ है। जनता यह आदरणीय
विशेषण केवल उन महापुरुषों को देती है, जिसे वह पिता तुल्य समझती है। जिससे स्पष्ट होता है कि कवि केदार लोक-जन
और लोक-संवेदना के
अंतस्तल के साहित्यकार थे। वास्तव
में
केदारनाथ अग्रवाल हिंदी साहित्य के ऐसे रचनाकार थे, जिन्होंने
अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक
विद्रूपताओं, विसंगतियों को मिटाने का भरसक प्रयास किया है। समाज में समता और बंधुत्व का भाव जागृत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इनकी सेवाओं से
हिंदी-साहित्य-जगत चिरकाल
तक लाभान्वित होता रहेगा।
केदार
के संपूर्ण
वाङ्मय पर काम
करने वाले और
‘संचयिता : केदारनाथ अग्रवाल’ के लेखक
डॉ. अशोक त्रिपाठी के शब्दों में
“केदार तो चले गए पर उनका रचना
संसार आज भी हमारे
लिए प्रेरणा का, संघर्ष का, प्रेम का, मनुष्यता का, अन्याय के प्रति
प्रतिरोध का अजस्र श्रोत है और आगे
आने वाली सदियों तक बना रहेगा। वह
अपनी रचनाओं में सदैव
जीवित रहेंगे-मौत को मारते हुए।”21 केदार
जी के जीवन के अंतिम
वर्षों से ही ‘मृत्यु पर जीवन के जय की घोषणा’
को चिर-सजीव बनाए रखने के लिए
सन् 1996 में ‘केदार सम्मान’ नामक पुरस्कार की स्थापना की गई। जिसकी देख-रेख ‘केदार शोध पीठ न्यास’ बांदा द्वारा की जाती है। यह सम्मान प्रतिवर्ष ऐसी प्रतिभाओं को दिया जाता है
जिन्होंने हिंदी साहित्य में केदार की काव्यधारा को अपनी रचनाशीलता द्वारा आगे बढ़ाने में
कोई अवदान दिया हो। ‘केदार शोध पीठ’ के संप्रति अध्यक्ष उनके सुपुत्र अशोक
अग्रवाल और सचिव श्री
नरेंद्र पुण्डरीक हैं।
कवि के उक्त जीवन रेखा की प्रस्तुति के बाद उनके कृतित्व पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे-